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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) गुरुत्व व पृथिवी और जल में रहनेवाला विशेष गुण होता है । (१३) द्रवत्व- द्रवत्व पृथिवी, जल और तेज तीन द्रव्यों में रहनेवाला विशेष गुण है। वह दो प्रकार का होता है - (१) स्वाभाविक या सांसिद्धिक और (२) नैमित्तिक । जलीय द्रवत्व (तरलता) स्वाभाविक और घृतादिरूप पृथिवी का द्रवत्व नैमित्तिक है । वह कहीं जल के संयगोरूप निमित्त और कहीं जतु (लाख) आदि में अग्नि संयोग रूप निमित्त से उत्पन्न होता है । सुवर्णादिरूप तेजस द्रव्य में भी अग्नि के संयोग से ही द्रवत्व उद्भूत होता है । (१४) स्नेह - स्नेह जल मात्र में रहनेवाला स्निग्धत्वादि व्यवहार का प्रयोजक विशेष गुण होता है । (१५) बुद्धयादि षट्क-बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न नाम के छः गुण आत्मा के विशेष गुण कहे जाते हैं । उनमें बुद्धि को छोडकर शेष सुखादि पाँच गुण मानस प्रत्यक्ष के विषय होते हैं । बुद्धि की कल्पना अर्थापत्ति प्रमाण से की जाती है, क्योंकि 'ज्ञातोऽयं घटः ' - इत्यादि प्रत्यक्ष ज्ञान के विषयीभूत ज्ञातत्व, प्रकाश, प्राकट्य इत्यादि नामों से प्रसिद्ध धर्म की अन्यथा (बुद्धि के विना) अनुपपत्ति होती है, उसकी उपपत्ति तभी हो सकती है, जब कि बुद्धि या ज्ञान की कल्पना की जाय । प्रभाकर गुरु और आचार्य शङ्कर के मत में बुद्धि (ज्ञान) स्वयं प्रकाशक है और नैयायिकों के मत में ज्ञान का प्रत्यक्ष माना जाता है, अतः इन तीनों का निराकरण किया जाता है ।
ज्ञान की स्वयंप्रकाशता-स्वप्रकाशतावादियों का अनुमान प्रयोग है- "ज्ञान स्वविषयकव्यवहारे सजातीय परानपेक्षम्, अव्यवधानेन विषये प्रकाशादिव्यवहारनिमित्तत्वात्, प्रदीपालोकवत्" (पञ्च० वि० पृ० २४७) । विवकरणकार ने व्यवहार चार प्रकार का बताया है- "व्यवहारः अभिज्ञा, अभिवदनम्, उपादानम्, अर्थक्रिया-इति चतुर्विधः " (पञ्च० वि० पृ० ६२ ) । प्रकृत में अभिज्ञा और अर्थक्रिया विवक्षित हैं । जैसे प्रदीप स्वकीय ज्ञान या प्रकाशरूप व्यवहार में प्रदीपान्तर की अपेक्षा नहीं करता, वैसे ही ज्ञान भी अपने व्यवहार में ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं करता यही ज्ञान की अपनी स्वप्रकाशता है ।
स्वयंप्रकाशता - निरास - उक्त अनुमान अर्थान्तरानुमापक लिङ्गान्तरानुमेय लिङ्ग में व्यभिचरित है, क्योंकि वह पर - प्रकाश लिङ्ग अपने ज्ञानरूप व्यवहार में अपने सजातीय लिङ्गान्तर की अपेक्षा करता है । 'ज्ञान भी यदि ज्ञेय माना जाता है, तब वह घटादि के समान जड या अप्रकाशरूप हो जायेगा' ऐसा आक्षेप नहीं कर सकते, क्योंकि स्वप्रकाश-पक्ष में भी देवदत्तादिगत ज्ञान चेष्टादिलिङ्गकानुमान से ज्ञेय होता है, उस ज्ञेयभूत ज्ञान में जडत्वापत्ति समान ही है । अतः ज्ञान या अन्य किसी भी पदार्थ में ज्ञान - कर्मत्व मात्र जडत्व का प्रयोजक नहीं होता, अपितु वस्तुनिष्ठ व्यवहारानुगुणत्व जिसके अधीन होता है, वह अजड और जिसके अधीन किसी का व्यवहारानुगुणत्व नहीं होता, वह जड़ है ।
इस प्रकार ज्ञान की स्वप्रकाशता के विषय में परमत का निराकरण किया गया, अब स्वकीय (भाट्ट) पक्ष की स्थापना के लिए अनुमानप्रयोग किया जाता है - (१) 'ज्ञानं स्वप्रकाशं न भवति, वस्तुत्वाद्, घटवत्' । (२) विवादास्पदव्यवहारः, स्वविषयकज्ञाननिबन्धनः, व्यवहारत्वात्, घटादि-व्यवहारवत् । (३) 'संवेदनव्यवहारः, संवेदनविषयक संवेदनप्रयुक्तः ', 'संवेदनव्यवहारत्वात्, परगतसंवेदनव्यवहारवत्' (श्री चिदानन्द पण्डित ने उक्त तीन अनुमानों से पहले एक अनुमान ओर प्रस्तुत किया है - " ज्ञानं स्वप्रतिबद्धव्यवहारे ज्ञानान्तरापेक्षम्, व्यवह्नियमाणत्वात् " ( नीति० पृ० १२७) । स मिलाकर परप्रकाशता में चार अनुमान किए गए हैं। आचार्य भा सर्वज्ञ ने जो प्रयोग किया है- "ज्ञानं स्वव्यतिरिक्तवेदनवेद्यम्, वेद्यत्वाद्, रूपादिवत्" (न्या० भू० पृ० १३९) वैसे प्रयोगों में तो दृष्टान्तभूत रूपादि जड पदार्थ हैं, उनकी समता का अजडात्मक पक्ष में न होना अनुचित नहीं । कथित तृतीय अनुमान में परगत अनुभूति को जो दृष्टान्त बनाया गया, वह अवश्य स्वप्रकाशता पर एक प्रबल प्रहार है, क्योंकि परकीय ज्ञान में ज्ञेयत्व न मानने पर वादी-प्रतिवादी आदि के व्यवहारों
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