________________
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
६४५/१२६८ अनुस्यूतरूप में विद्यमान है, तब उनमें रहनेवाली सत्ता को क्यों न माने? इसी प्रकार शब्द के सुनाई देने पर तुरन्त ही 'शब्दोऽयम्'-इस प्रकार अनुगताकार बुद्धि से शब्दत्व की भी सिद्धि हो जाती है ।
शङ्का-जैसे पाचकोऽयम्', 'पाचकोऽयम्'-इस प्रकार एव पाक क्रिया रूप उपाधि को लेकर 'पाचक' शब्द का प्रयोग हो जाता है, वैसे ही सत्त्वादि में भी एक उपाधि-निबन्धन एक शब्द-प्रयोग क्यों नहीं ?।
समाधान-सत्त्वादि में वैसी कोई उपाधि अनुभव में नहीं आती, जिसे एक प्रयोग का नियामक माना जा सके । यदि कहा जाय कि सत्त्व के प्रयोग में प्रमाण-सम्बन्ध-योग्यत्व को उपाधि माना जा सकता है । तो वैसा नहीं कह सकते, क्योंकि प्रमाण-सम्बन्ध-योग्यत्व के अवगम से पूर्व ही सत्-सत् इस प्रकार का अनुगम देखा जाता है, अत: प्रमाणसम्बन्ध-योग्यत्व को सत्त्व की उपाधि नहीं मान सकते, क्योंकि उपाधि के ज्ञान से पूर्व कभी भी औपाधिक व्यवहार नहीं देखा जाता । यदि उपाधि के ज्ञान से पूर्व औपाधिक व्यवहार हो सकता है, तब देवदत्तगत पाचकत्व के ज्ञान से पूर्व ही 'देवदत्तोऽयं पाचकः'-ऐसा व्यवहार होना चाहिए । इसी प्रकार शब्दत्व में श्रोत्रग्राह्यत्व उपाधि नहीं हो सकती । माता पिता में ब्राह्मण' शब्द का प्रयोग देखकर यदि पुत्र में ब्राह्मण' पद का प्रयोग किया जाय, तब पिता में प्रयुक्त 'देवदत्त' पद का पुत्रादि में भी प्रयोग होना चाहिए । अत: अनेक ब्राह्मणकुलों का वर्गीकरण 'ब्राह्मणत्व' जाति के बिना सम्पन्न नहीं हो सकता. अत: 'ब्राह्मणत्व' जाति सिद्ध हो जाती है । ब्राह्मणत्व जाति प्रत्यक्ष भी है, क्योंकि जिस व्यक्ति के लिए यह सून रखा है कि यह विशुद्ध ब्राह्मण माता-पिता से उत्पन्न है, उस व्यक्ति को देखते ही उसमें ब्राह्मणत्व का साक्षात्कार हो जाता है । इसी प्रकार द्रव्यत्व, गुणत्व, रसत्वादि अन्यान्य जातियाँ भी सिद्ध हो जाती है, उनमें प्राभाकरकल्पित उपाधियों का निरास पूर्ववत् हो जाता है, अत: जाति तत्त्व सिद्ध हो गया । अब गुण का निरुपण किया जाता है
कर्मणो व्यतिरिक्तत्वे सत्यवान्तरजातिमान् । उपादानत्वनिर्मुक्तो गुणो गुणविदां मतः ।।३७।। बुद्धिः स्वयंप्रकाशेति गुरुशङ्करयोर्मतम् । प्रत्यक्षेत्यक्षपादानां तन्निरासोऽभिधीयते ।।३८।। प्रयत्नस्तु शरीरादौ हेतुः कर्मसमुद्भवे । एवमेते समुद्दिष्टाः संक्षेपादात्मनो गुणाः ।।३९।। वेणुरन्ध्रप्रयुक्तं वा बद्धं वा बहुवत्सरम् । मुच्यमानं श्वलाङ्गुलं वक्रभावं न मुञ्चति ।।४।। शक्तित्वसामान्यवर्ती द्रव्यकर्मगुणाश्रयाम् । श्रुत्यर्थापत्तिविज्ञेयां शक्तिमाहुः कुमारिलाः ।।४१।। यादृशादग्निसंयोगात् सर्वदा दाहदर्शनम् । तादृशादेव मन्त्रादिप्रयोगे तददर्शनात् ।।४।।
अग्निसंयोगातिरिक्तं यत्किञ्चित् कारणान्तरम् । अस्ति दृश्यमदृश्यं वेत्येवं साधारणी प्रमा ।।४३।। दृश्यादर्शनजाभावप्रमाणेन विहन्यते । तत्रानयोविरोधे सत्यविरोधाय कल्प्यते ।।४४।। अदृश्यं कारणं किञ्चित् सा शक्तिरिति गीयते । गुणोक्तलक्ष्मसद्भावादस्याश्च गुणता मता ।।४५।। (३) गुण-कर्म से जो भिन्न हो, अवान्तर जातिमान् हो और उपादानत्व-रहित हो, उसे गुण कहा करते हैं । गुण के चौवीस भेद होते हैं-(१) रूप, (२) रस, (३) गन्ध, (४) स्पर्श, (५) संख्या, (६) परिमाण, (७) पृथक्त्व, (८) संयोग, (९) विभाग, (१०) परत्व, (११) अपरत्व, (१२) गुरुत्व, (१३) द्रवत्व, (१४) स्नेह, (१५) बुद्धि, (१६) सख, (१७) द:ख. (१८) इच्छा. (१९) द्वेष, (२०) प्रयत्न. (२१) संस्कार. (२२) ध्वनि. (२३) प्राकट्य और (२४) शक्ति ।
(१) रुप-रूप केवल चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य, पृथिव्यादि त्रय एवं तम में वृत्ति विशेष गुण है । वह पाँच प्रकार का होता है- (१) शुक्ल, (२) कृष्ण, (३) पीत, (४) रक्त और (५) श्याम । इनके अवान्तर भेद अनन्त होते हैं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org