________________
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
६४३/१२६६ क्योंकि तत्कालोत्पन्न व्यक्ति के साथ अन्य व्यक्तियों में उपस्थित जाति का अन्वय नहीं हो सकता । व्यक्ति की उत्पत्ति के साथ-साथ तद्गत जाति भी उत्पन्न हो जाती है-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि मीमांसकगण जाति को नित्य मानते हैं। व्यक्त्यन्तर से व्यक्त्यन्तर में जाति का आगमन भी सम्भव नहीं, क्योंकि मीमांसक ही जाति को निष्क्रिय मानते हैं एवं जात्यन्तर से जाति के निकल जाने पर वहाँ जाति की अनुपलब्धि प्रसक्त होगी । अंशतः जाति का आगमन और अंशत अवस्थान भी नहीं कह सकते, क्योंकि जाति को निरंश माना जाता है । यह भी जिज्ञासा होती है कि, व्यक्ति का विनाश हो जाने पर (१) क्या जाति भी व्यक्ति के साथ ही विनष्ट हो जाती है ? (२) या उसी देश में स्थित रहती है ? (३) अथवा व्यक्त्यन्तर में चली जाती है ? प्रथम (नाश) पक्ष उचित नहीं, क्योंकि जाति नित्य होती है । द्वितीय पक्ष भी युक्त नहीं, क्योंकि उस देश में उपलब्ध न होने के कारण वहाँ उसका अवस्थान नहीं माना जा सकता । तृतीय (गमन) पक्ष भी संगत नहीं, क्योंकि निष्क्रिय होने के कारण जाति में गति नहीं बनती, किसी प्रकार व्यक्त्यन्तर में गमन मान लेने पर भी व्यक्त्यन्तर में दो जातियों की उपलब्धि होनी चाहिए, इन सभी आक्षेपों को ध्यान में रखकर ही बौद्धों ने (प्र.वा. १/ १५ में) कहा है -नायाति न च तत्रासीदस्ति पश्चान चांशवत् । जहाति पूर्वं नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ।।
बौद्ध-मत का निरास-यह जो प्रश्न किया गया कि जाति सर्वगत होती है ? अथवा केवल व्यक्तिगत ? उसके उत्तर में हमारा कहना है कि, हम दोनों पक्षों को मानते और उनका समन्वय कर लेते हैं कि सर्वगतत्व सिद्ध हो जाने से ही व्यक्तिगतत्व भी सिद्ध हो जाता है, उसके पृथक् सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं । सर्वगत मानने पर सर्वत्रोपलब्धिप्रसङ्ग भी नहीं हो सकता, क्योंकि व्यक्तियों को ही जाति का व्यञ्जक माना जाता है । अभिव्यञ्जक के बिना अभिव्यङ्गय का उपलम्भ कही नहीं होता । व्यक्तिगत मानने पर तत्कालोत्पन्न व्यक्ति में जाति का योग और व्यक्ति के नष्ट हो जाने पर जाति का वियोग क्योंकर होगा ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, व्यक्ति की उत्पादक और नाशक सामग्री से ही जाति का योग और वियोग सम्पन्न हो जाता है । 'अन्यत्र अवस्थित पदार्थ का अन्यत्र अन्वय गतिपूर्वक होता है'-यह नियम पृथक्सिद्ध पदार्थों के विषय में ही लागू होता है, अयुतसिद्ध पदार्थों में नहीं, अतः तादात्म्य सम्बन्ध से सम्बद्ध जाति और व्यक्ति के समन्वय में गतिपूर्वकत्व का आपादन नहीं किया जा सकता । पदार्थयोः तादात्म्यम्, गतिपूर्वकम् भवति, सम्बन्धत्वात्, संयोगवत्'-इस प्रकार युतसिद्ध-सम्बन्धत्व और अयुतसिद्ध-सम्बन्धत्वादि विशेषताओं की उपेक्षा पर यत्किञ्चित् साधर्म्य को लेकर अनिष्ट का साधन या आपादन करने पर विश्व का ही साङ्कर्य हो जायगा । __ शाबलेयादि गोव्यक्तियों में अनुस्यूत और महिषादि से व्यावृत्त 'गौः' इस प्रकार प्रत्यक्षप्रमाण-निष्पन्न एकाकारावभास एक ऐसा उत्कट प्रमाण है, जो कि जाति-वाद में विश्वास न रखनेवाले बौद्धों को भी जाति मानने के लिए बाध्य कर देता है। 'गौरयम्'-इस प्रकार के विधिमुख अनुभव को 'अयमगोभिन्नः'-इस प्रकार निषेध मुख प्रत्यय के रूप में परिवर्तित नहीं किया जा सकता, अत: बौद्धों के अपोहवाद से जातिवाद की गतार्थता कथमपि सम्भव नहीं हो सकती । कुछ ध्यान देकर देखने पर ‘अगोनिवृत्ति' शब्द दो निषेधों से युक्त होने के कारण गोत्वरूप अर्थ को ही कहता है, अतः अपोह या इतर-निवृत्ति आदि शब्दान्तरों के द्वारा जाति तत्त्व का प्रतिपादन किया जाता है, जैसा कि वार्तिककार ने (श्लो० वा० पृ० ५६६ पर) कहा है- अगोनिवृत्तिसामान्यं वाच्यं यः परिकल्पितम् । गोत्ववस्त्वेव तैरुक्तमगोऽपोहगिरा स्वयम् ।। __जैसे वृक्ष-समूह में 'वनम्'-इस प्रकार की आरोपबुद्धि होती है, वैसे ही व्यक्तियों में जाति बुद्धि है-ऐसा कहना भी सम्भव नहीं, क्योंकि वृक्षों से अतिरिक्त वन पदार्थ का जैसे बाध होता है, वैसे व्यक्तियों से भिन्न जाति तत्त्व का बाध नहीं होता ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org