Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 02
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

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Page 665
________________ ६३८/१२६१ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) युगपुद्ग्रहण-प्रसक्ति उपाधि को लेकर हटाई जाती है, वैसे ही विभु मन की भी युगपज्ज्ञानानुपपत्ति का समर्थन उपाधि को लेकर किया जा सकता है तथा शतावधान व्यक्ति को एक काल में ही अनेक ज्ञान होते हैं, जिससे मन की विभुता ही सिद्ध होती है । (२) आत्मगत ज्ञानादि के विशेष गुणों के असमवायिकारणीभूत संयोग की आधारता को लेकर जो अणु मन की सिद्धि की जाती है, वह भी संगत नहीं, क्योंकि जब शरीरावच्छेदेन आत्मा में ज्ञानादि उत्पन्न होते हैं, तब शरीर और आत्मा के संयोग को ही ज्ञानादि का असमवायिकारण भी माना जा सकता है, अतः यह मार्ग भी धर्मिग्राहक नहीं माना जा सकता)। (३) यह जो कहा गया कि, आत्मगत सुखादि-साक्षात्कार-जनक इन्द्रिय के रूप में मन की सिद्धि और विभु में इन्द्रियत्व नहीं बन सकता, अतः अणु मन की कल्पना होती है. वह कहना भी संगत नहीं, क्योंकि इस प्रकार मनरूप धर्मी का ग्रहण हमें स्वीकृत हैं, किन्तु उसे अणु मानने की कोई आवश्यकता नहीं, विभु मन की उपाधि है-पूरा शरीर । पादादिगत वेदनाओं का जो यौगपद्यापादन किया गया, वह उचित नहीं, क्योंकि मन बाह्य इन्द्रियों के अनुसार ही कार्यकारी माना जाता है, अत: त्वगिन्द्रिय के एक भाग में कण्टकादि का स्पर्श सकल शरीर-व्यापी नहीं प्रतीत होता । मन को अणु मान लेने पर भी सकल शरीर में व्याप्त चन्दनादि से जनित सुख सभी भागों में जो युगपत् गृहीत होता है, वह नहीं हो सकेगा, इस प्रकार अणुत्व और विभुत्व दोनों पक्षों में गुण-दोष समान हैं, फलत: मनोग्राहक प्रमाण परिमाणनिरपेक्ष केवल मन का ग्रहण करता है, विभु या अणु का नहीं, विभुत्व की सिद्धि प्रमाणान्तर से होती है, वह ऊपर कहा जा चुका है । शङ्का-दो द्रव्यों का संयोग उनमें से अन्यतर द्रव्य या दानों द्रव्यों के कर्म (क्रिया) से उत्पन्न होता है, मन और आत्मा दोनों विभु हैं, उनमें क्रिया सम्भव नहीं, अतः उनका संयोग कैसे उत्पन्न होगा ? ___समाधान-दोनों जब विभु हैं, तब एक-दूसरे से वियुक्त हो ही नहीं सकता, अतः उनका संयोग स्वभाव-सिद्ध है । 'दो विभु द्रव्यों का संयोग कर्म-जन्य होता है'-ऐसा हम नहीं मानते, क्योंकि वह संयोग जन्य ही नहीं होता, अजन्य होता है । शङ्का-दो विभु द्रव्यों का संयोग कहीं भी नहीं देखा जाता, अत: आत्मा और मनोरूप दोनों विभु द्रव्यों के सम्बन्ध का अनुमान विशेष विरुद्ध है (क्योंकि सम्बन्ध सामान्य के घटकीभूत संयोगरूप सम्बन्ध विशेष का बाध हो जाने के कारण सम्बन्ध सामान्य का अनुमान नहीं किया जा सकता)। समाधान-दिक् और आकाशादि विभु द्रव्यों का संयोग अनुभवसिद्ध है, क्योंकि 'पूर्वीय आकाश', 'पश्चिमीय आकाश'-इत्यादि प्रतीतियों के आधार पर दिक् और आकाश का परस्पर सम्बन्ध मानना आवश्यक है । अनुमान-प्रयोग भी श्री पार्थसारथि मिश्र ने न्यायरत्नमाला (पृ० ६३ पर) प्रस्तुत किया है-"विभुनी मिथः संयुक्ते, द्रव्यत्वे सति निरन्तरत्वाद्, घटाकाशवत्" । उसी प्रकार ये प्रयोग भी हो सकते हैं-( ) विभुनी द्रव्ये, परस्परसंयोगिनी, अनारभ्यारम्भकद्रव्यत्वे सति निरन्तरत्वाद्, घटवत् (यहाँ मन विभु होने के कारण किसी आरभ्य द्रव्यान्तर का आरम्भक नहीं और घट अन्त्यावयवी होने के कारण द्रव्यान्तर का अनारम्भक है) । (२) आकाश: कालसंयोगी, कालव्यतिरिक्तत्वे सति निरन्तरत्वाद्, घटवत् । (यहाँ निरन्तरता और संयोग-दोनों पर्याय नहीं अपितु कालिक और दैशिक व्यवधान का न होना निरन्तरता और संयोग दो द्रव्यों का सम्बन्ध विशेष हैं, दोनों में एक अभावात्मक और दूसरा भावात्मक भी है)। शङ्का-सुखादि के अपरोक्षार्थ साधन द्रव्य के रूप में मन की कल्पना न कर प्रसिद्ध दिक् और आकाशादि में से किसी एक को ही साधन मान लेना ही लघु मार्ग है, द्रव्यान्तर की कल्पना में गौरव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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