________________
६४०/ १२६३
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
तार्किकों का वह समर्थन युक्ति-युक्त नहीं, क्योंकि जिस प्रत्यभिज्ञा का किसी सबल प्रमाण से विरोध होता है, उसी के द्वारा व्यक्तिगत एकत्व की सिद्धि न होकर जाति-निबन्धन व्यवहार माना जाता है, अन्यथा सर्वत्र जाति-निबन्धन प्रत्यभिज्ञा की कल्पना करने पर 'सोऽयं देवदत्तः' इत्यादि स्थलों पर भी व्यक्तिगत एकत्व की सिद्धि न हो सकेगी । 'सोऽयं गकारः'-इस प्रत्यभिज्ञा का कोई बाधक प्रमाण भी उपलब्ध नहीं होता, अत: इसके द्वारा शब्द की एकता सिद्ध होती है ।
शङ्का-'उत्पन्नो गकारो विनष्टो गकारः' इत्यादि प्रतीतियों को उक्त प्रत्यभिज्ञा का बाधक माना जा सकता है । शब्द का ध्वंस जब प्रत्यक्ष हो रहा है, तब उसे नित्य नहीं माना जा सकता । ___समाधान-किसी भी अभाव का प्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता, अत: ध्वंस विषयक प्रत्यक्ष को एकत्वप्रत्यभिज्ञा का विरोधी नहीं कह सकते । अभाव का ज्ञान योग्यानुपलब्धि से होता है, वह भी बाधक नहीं हो सकती, क्योंकि शब्द के व्यञ्जकीभूत ध्वनि के विनाश का ज्ञान अनुपलम्भादि से होता है, शब्द के ध्वंस का नहीं । शब्द में उत्पाद-विनाश का व्यवहार वैसे ही हो जाता है, जैसे कि कुआँ खोदने पर कूपाकाश की उत्पत्ति और कुआँ भर देने पर कूपाकाश के नाश का व्यवहार होता है । व्यञ्जक उपाधि के सन्निधान से नित्यभूत व्यङ्गय की अभिव्यक्ति
और व्यञ्जक का असन्निधान होने से व्यङ्गय वस्तु की अनभिव्यक्ति से ही उसमें उत्पाद-विनाश का व्यवहार हो जाता है। 'शब्दो नित्यः, भावत्वे सति अकारणत्वाद्, व्योमवत्'-इस अनुमान के द्वारा शब्द में नित्यता सिद्ध होती है (प्रागभावादि अकारणक अनादि पदार्थों में व्यभिचार हटाने के लिए भावत्व विशेषण लगाया है । घटादि पदार्थों की अनित्यता के प्रयोजक घटादिगत सकारणत्व और भावत्वादि धर्म हैं, शब्द में भावत्व होने पर भी सकारणत्व नहीं, अत: वह नित्य है) । ताल्वादि-व्यापार शब्द के कारण हैं, अतः शब्द में अकारणत्व क्योंकर रह सके का उत्तर यह है कि, जैसे भू-खननादि व्यापार कन्द, मूल एवं जलादि का उत्पादक नहीं व्यञ्जक ही होता है, वैसे ही कण्ठ-ताल्वादि का व्यापार शब्द का केवल व्यञ्जक ही होता है, शब्द का कारण नहीं । 'ताल्वादिव्यापारः, शब्दकारणं न भवति, व्यापारत्वाद्, आकुञ्चनादि व्यापारवत्'-इस अनुमान के द्वारा ताल्वादि के व्यापार में शब्द की अकारणता भी सिद्ध हो जाती है । ___ शङ्का-'ताल्वादिव्यापार: शब्दस्य कारणं भवति, शब्दस्य तदनन्तरभावित्वाद्, यो यदनन्तरभावी, स तत्कारणकः, यथा कुलालव्यापारानन्तरभावी घटस्तत्कारणक:'-इस अनुमान के द्वारा ताल्वादि-व्यापार में शब्द की कारणता सिद्ध होती है, अतः शब्द में सकारणत्व ही है, अकारणकत्व नहीं ।
समाधान-पूल और जलादि में उक्त अनुमान व्यभिचरित है, क्योंकि खननादि व्यापार के अनन्तर उनकी उपलब्धि होने पर भी खननादि को जलादि का कारण या उत्पादक नहीं माना जाता । फलतः ताल्वादि व्यापार को शब्द का व्यञ्जक ही मानना होगा, जैसे की (नीति० पृ० ९८ में) श्री चिदानन्द पण्डित ने कहा है- अकारणत्वे ताल्वादिव्यापारस्य व्यवस्थिते । तद्व्यङ्गयोऽनन्तरं दृष्टः शब्दो मूलकादिवत् ।।
शङ्का-ताल्वादि-व्यापार को शब्द का व्यञ्जक मानने पर अभिव्यक्त शब्द का सर्वत्र सभी व्यक्तियों को श्रवण होना चाहिए, क्योंकि शब्द विभु माना गया है ।
समाधान-ताल्वादि स्थानों पर जिह्वा के अभिघात से जो नादसंज्ञक वायवीय कम्पन उत्पन्न होता है, वही शब्द का व्यञ्जक माना जाता है, उसकी शक्ति और गति सीमित होने के कारण जिस श्रोत्र तक पहुँच होती है, वही श्रोत्र शब्द सुन सकता है, दूर तक सभी श्रोत्रों से उस ध्वनि का संयोग न हो सकने के कारण शब्द का सर्वत्र श्रवण नहीं हो सकता, जैसा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org