________________
६३६/१२५९
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) प्रभाकर गुरु का कहना है कि, ज्ञानादि सकल विशेष गुणों का विलय हो जाने पर आत्मा की जो स्वरूप में अवस्थिति है, वही मुक्ति है, जैसा कि श्री शालिकनाथ मिश्र कहते हैं-"आत्यन्तिकस्तु देहोच्छेदो निःशेषधर्माधर्मपरिक्षयनिबन्धनो मोक्षः" (प्र०पं०पृ० ३४१) । श्री प्रभाकर सम्मत इस मोक्ष में भी सुख का विलोप हो जाने के कारण
ता ही पर्यवसित होती है। श्री जैनाचार्यों ने जो सतत ऊर्ध्व-गति को मोक्ष कहा है-“तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छन्त्यालोकान्तात्" (तत्त्वार्थ १०/५)। उसमें परम पुरुषार्थत्व सम्भव नहीं है। ___ सांख्याचार्यों का मत है-प्रकृति और पुरुष का विवेकज्ञान हो जाने पर आत्मा का स्वरूपावस्थान ही मोक्ष तत्त्व है-"तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्" (यो० सू० १/३) ! इस मोक्ष तत्त्व में भी आनन्द का अभाव है, अत: पुरुषार्थता कैसे होगी?
आचार्य शङ्कर का जो सिद्धान्त है कि प्रपञ्च का विलय ही मोक्ष तत्त्व है । प्रपञ्च-विलय आत्मस्वरूप और आत्मा आनन्दस्वरूप है, अतः पुरुषार्थता की उपपत्ति हो जाती है । वह शार सिद्धान्त भी संगत नहीं, क्योंकि प्रपञ्च का अत्यन्त विलय कभी सम्भव नहीं । प्रपञ्च को मायामय मानकर ज्ञान के द्वारा जो प्रपञ्च के विलय का उपपादन किया जाता है, वह संगत नहीं, क्योंकि प्रपञ्च मायामय नहीं, वास्तविक है-यह आगे कहा जायेगा । दूसरी बात यह भी है कि, आत्मा का आनन्द गुण है, आत्मा आनन्दरूप नहीं । पुरुषों की अभिलाषा भी ‘सुखं में स्यात्'-ऐसी ही होती है, 'सुखमहं स्याम्'-ऐसी नहीं, अतः आनन्दरूपता में पुरुषार्थता भी नहीं बनती।
दुःखात्यन्तसमुच्छेदे सति प्रागात्मवर्तिनः । सुखस्य मनसा भुक्तिर्मुक्तिरुक्ता कुमारिलैः ।।२५।। निषिद्धकाम्यकर्मभ्यः सम्यग्व्यावृत्तचेतसः । नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तप्रध्वस्तदुष्कृतेः ।।२६।। सुखदुःखानुभूतिभ्यां क्षीणप्रारब्धकर्मणः । युक्तस्य ब्रह्मचर्याद्यैरङ्गैः शमदमादिभिः ।।२७।। कुर्वाणस्यात्ममीमांसां वेदान्तोक्तेन वर्त्मना । मुक्तिः सम्पद्यते सद्यो नित्यानन्दप्रकाशिनी ।।२८।।
तब मोक्ष क्या है और उसका साधन क्या ? इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर है कि, दुःख का आत्यन्तिक समुच्छेद हो जाने पर जो आत्मा में पहले से ही वर्तमान आनन्द की मन के द्वारा अनुभूति होती है, उसे ही मोक्ष पदार्थ भाट्टगण मानते हैं।
शङ्का-मोक्षावस्था में अनुभूयमान आनन्द यदि पहले से ही आत्मा में वर्तमान रहता है, तब संसारावस्था में उसकी अनुभूति क्यों नहीं होती ?
समाधान-संसारावस्था में उस आनन्द के अनुभव का साधन नहीं होता । देहेन्द्रियादि के आत्यन्तिक ध्वसं से युक्त मन ही उस आनन्दानुभूति का साधन है, संसारावस्था में देहादि के आवरण से आवृत होने के कारण मन उस सुख को ग्रहण करने में सक्षम नहीं हो पाता । यदि संसारावस्था में वह आनन्द अनुभूत नहीं होता, तब उसके सद्भाव में क्या प्रमाण ? इस प्रश्न के उत्तर में यह श्रुति प्रमाण प्रस्तुत किया जाता है-"आनन्दं ब्रह्माणो रूपं तञ्च मोक्षेऽभिव्यज्यते" (ब्रह्म का वास्तविक रूप या गुण सुख होता है, जिसकी अभिव्यक्ति मोक्ष में ही होती है ।) __ शङ्का-"अशरीरं वावसन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशत:" (छां० ८/१२/१) यह श्रुति कहती है कि शरीर के न रहने पर न सुख की अनुभूति होती है और न दुःख की, अत: मोक्षावस्था में आनन्दानुभूति क्योंकर होगी ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org