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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
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आत्मा को विभु क्यों माना जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, प्राणियों को जो शिर और पैर में काँटा चुभने की पीडा का एक ही समय अनुभव होता है, वह आत्मा को अणु मानने पर उपपन्न नहीं हो सकता । आत्मा मध्यम परिमाण मानने पर उतना परिमाण मानना होगा, जितना कि शरीर का परिमाण है, क्योंकि शरीर से अधिक परिमाण मानने पर शरीर में आत्मा समा न सकेगा और शरीर से न्यून परिमाण मानने पर पूरे शरीर में व्याप्त न हो सकेगा, तब शिर और पाद की वेदनाओं का युगपत् अनुसन्धान कैसे हो सकेगा ? शरीर के समान परिमाण मान लेने पर गजादि-शरीरों को लम्बा-चौडा आत्मा चींटी के छोटे से शरीर में कैसे प्रविष्ट होगा ? बड़े शरीर के आत्मा को छोटा शरीर मिलता ही नहीं - ऐसा मानने पर श्रुतियों, स्मृतियों का विरोध होता है, क्योंकि धर्म शास्त्रों की व्यवस्था के 'अनुसार किसी भी शरीर का आत्मा छोटे या बड़े किसी भी शरीर में जा सकता है, (अत एव जैनों ने आत्मा का मध्यम परिमाण मानते हुये प्रदीप के समान संकोच - विकासशील माना है- " प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत्" (तत्त्वार्थ० ५ / १६) | श्री पार्थसारथिमिश्र ने कहा है- " पुत्तिकाहस्तिदेहयोरतिसंकोचविस्तारकल्पनं नातीव हृदयमनुरञ्जयति” (शा०दी० पृ० १२४ ) | श्री चिदानन्द पण्डित ने सामान्यतः मध्यम परिमाण पर दोष दिया है - " मध्यमपरिमाणत्वे च कार्यत्वेन अनित्यताप्रसङ्गात्” (नीति० पृ० २२२ ) । अतः आत्मा में विभुत्व ही शेष रहता है । " तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्" (श्वेता० ३ / ९) इत्यादि श्रुतियों से आत्मा में विभुत्व सिद्ध होता है । "अविनाशी वा अरे आत्मा अनुच्छित्तिधर्मा" (बृह.उ. ४/५/१४) इत्यादि श्रुतियों तथा निरवयवद्रव्यत्व और विभुत्वादि हेतुओं के द्वारा आत्मा में नित्यत्व सिद्ध किया जा सकता है ।
स्वर्ग और अपवर्ग क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर जो देहात्मवादी चार्वाकगण देते हैं कि, लौकिक सुख स्वर्ग, दुःख नरक तथा शरीर-पात मोक्ष है । वह देहादि से भिन्न आत्मा के सिद्ध कर देने पर अपने आप निरस्त हो जाता है । स्वर्ग का स्वरूप आगे कहा जायेगा ।
सौगतगण जो नील-पीतादि विषयरूप उपाधि का विलय हो जाने पर उपाधि रहित विज्ञान सन्तति का स्वरूपेण अवस्थान मोक्ष मानते हैं । वह भी अयुक्त हैं, क्योंकि निर्विषयक विज्ञान-सन्तति का स्वयं अवस्थान सम्भव नहीं । क्षण-क्षण में निरन्तर उत्पत्ति - विनाश से ग्रस्त किसी भी ज्ञानक्षण को मोक्षरूप फल का अनुभव नहीं हो सकता, अनुभूत वस्तु में पुरुष की अभिलाषा न होने के कारण उक्त मोक्ष में पुरुषार्थता ही उपपन्न नहीं होती ।
तार्किकगण कहते हैं कि इकवीस दुःखों का उच्छेद ही मोक्ष पदार्थ है । न्यायवार्तिककार ने सभी इक्कीस दुःख गिनाए हैं । “एकविंशतिप्रभेदभिन्नं पुनर्दुःखम् - शरीरं, षड् इन्द्रियाणि, षड् विषयाः, षड् बुद्धयः, सुखम्, दुःखं च" (न्या० वा० पृ० २) । तार्किकों के इस मोक्ष में सुख का भी विनाश मान लिया गया है, असुखरूप मोक्ष में भी पुरुषार्थत्व नहीं बनता, अतः यह भी पूर्ववत् उपेक्षणीय ही है । यदि कहा जाय कि, मोक्ष में पुरुषार्थता का निष्पादन करने के लिए सुख या सुखरूपता मानने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जैसे सुषुप्ति में दुःख का अभाव होने मात्र से पुरुषार्थता अनुभूत होती है, वैसे ही दुःखाभावरूप मोक्ष में पुरुषार्थता निभ जाती है । तो वैसा नहीं कह सकते, क्योंकि केवल दुःखाभाव का होना पुरुषार्थता के लिए पर्याप्त नहीं, सुख का भी होना आवश्यक है । अन्यथा सुषुप्ति से उठे पुरुष को दुःखाभाव का स्मरण होने के साथ-साथ सुषुप्ति में स्वप्न कामिनी सम्भोग जनित सुख के विलोप से जो महान् क्लेश होता है, वह नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुःखाभावरूप परम पुरुषार्थ का सुषुप्ति में जब लाभ हो गया, तब एक स्वल्प सुखाभास के न होने का दुःख क्यों होगा ? अतः स्वर्ग के समान अनुपम सुख-सम्पत्ति को लात मार कर मोक्ष की लालसा महापुरुषों में होती है, वह मोक्ष में केवल दुःखाभाव के कारण नहीं हो सकती, मोक्ष में सुख या सुखरूपता मानना परम आवश्यक है ।
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