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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
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है, क्षणिक नहीं । नीलपीतादि विषय के भेद से ज्ञान में जो भेद प्रतीत होता है, वह औपाधिक है, स्वरूपतः ज्ञान एक और नित्य ही होता है । 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म- यहाँ तीनों पद जब एक ही अर्थ का प्रतिपादन करते हैं, तब तीन पदों की क्या आवश्यकता ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, 'विज्ञान' पद से अचेतन या जड और 'आनन्द' पद से दुःख की व्यावृत्ति की जाती है, नहीं तो आत्मा में जड और दुःखरूपता भी प्रसक्त हो जाती । व्यावर्त्य के भेद से व्यावर्तक पदों का सार्थक्य 'प्रकृष्टप्रकाशः चन्द्रः ' - इत्यादि लक्षण वाक्यों में भी माना जाता है- 'प्रकृष्ट' पद से खाद निकृष्ट प्रकाश और ‘प्रकाश' पद से प्रकृष्ट ध्वान्त की व्यावृत्ति की जाती है, प्रकृष्ट और प्रकाश- दोनों पद एक ही अखण्ड चन्द्ररूप अर्थ का बोध कराते हैं, क्योंकि कोई प्रश्न करता है- 'अस्मिन् ज्योतिर्मण्डले कतमश्चन्द्रः ? इस प्रश्न वाक्य में कई पद हैं, तथापि पूरे प्रश्न का तात्पर्य एक चन्द्ररूप प्रातिपदिकार्थ में ही माना जाता है, अत एव उस प्रश्न के 'प्रकृष्टप्रकाशः चन्द्रः ' - इस उत्तर वाक्य का भी तात्पर्य उसी चन्द्ररूप प्रातिपदिकार्थ में ही मानना होगा, अन्यथा प्रश्न और उत्तर का वैयधिकरण्य हो जायेगा । (पञ्चपादिकाचार्य ने भी कहा है- "व्यक्तिविशेषः कश्चित् चन्द्रप्रातिपदिकाभिधेयः केनचित् पृष्टः-अस्मिन् ज्योतिर्मण्डले कश्चन्द्रो नाम ? तस्य प्रतिवचनम् - प्रकृष्टप्रकाशश्चन्द्र इति । तदेवं प्रतिवचनं भवति - यदि तथा चन्द्रपदेनोक्तम्, तथा आभ्यामपि पदाभ्यामुच्येत" (पं० पा० पृ० ३२४) । अतः अविज्ञान और अनानन्द की व्यावृत्ति करने के लिए विज्ञान और आनन्द - ये दो पद रखे गये हैं । 'प्रकृष्टप्रकाशश्चन्द्रः '-यहाँ प्रकृष्ट और प्रकाश- इन दोनों पदों का परस्पर एवं 'चन्द्र' पद के साथ अभिन्नार्थकत्व मानना होगा, अन्यथा चन्द्र प्रातिपदिकार्थविषयक प्रश्न के उत्तर में अन्यार्थ का कथन असङ्गत हो जायेगा, इसलिए विज्ञान और आनन्द-इन दोनों पदों का परस्पर एवं 'ब्रह्म' पद के साथ अभिन्नार्थकत्व अवश्य मानना होगा । अत एव हम (अद्वैत वेदान्ती) महावाक्यों का अखण्ड ही अर्थ मानते हैं, उसके अनुरूप प्रयोग भी किया जाता है-विज्ञानादिपदमखण्डार्थबोधकम्, लक्षणवाक्यत्वात्, प्रकृष्टप्रकाशश्चन्द्र इतिवत् । ' इस प्रकार विज्ञान और आनन्द- इन दोनों पदों में एकार्थत्व, अपर्यायत्व और अवैयर्थ्यं सिद्ध हो जाता है । (श्री चित्सुखाचार्य ने कहा है- " व्यावृत्ति द्वारा पदानां स्वरूपमात्रपर्यवसायित्वाङ्गीकाराद् व्यावर्त्यभेदेनावैयर्थ्याच्च "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इत्यादौ सत्यज्ञानानन्तशब्दा अनृतजडदुःखान्तवत्त्वानात्मत्वभ्रान्तिनिवृत्तिपरा लक्ष्ये ब्रह्मणि पर्यवस्यन्ति” (चित्सु० पृ० १९६) ।
औपनिषद मत की आलोचना - प्रभाकर गुरु वाक्यार्थ कार्यरूप और श्री शङ्कराचार्य अखण्डार्थ को ही वाक्यार्थ मानते हैं किन्तु हम (भाट्टानुयायी) संसर्गापरपर्याय विशिष्टार्थ को वाक्यार्थ कहते है । कार्य या नियोग
वाक्यार्थता का निरास - प्रकार गुणप्रकरण में कहा जायेगा । यहाँ हमारा कहना है- 'नाखण्डं वाक्यार्थः', क्योंकि वाक्य घटक सभी पदों का यदि एक अखण्ड ही वाक्यार्थ माना जाता है, तब एक ही पद के द्वारा ही वह एक अर्थ प्रतिपादित हो जाता है, इतर पदों का उच्चारण व्यर्थ है । यह जो कहा गया है कि, सभी पदों का व्यावर्त्य अर्थ भिन्नभिन्न होने के कारण वैयर्थ्यापत्ति नहीं होती । वह कहना संगत नहीं, क्योंकि जब सभी पदों का एक ही अर्थ वाच्य माना जाता है, तब न तो भिन्न-भिन्न अर्थ होता है और न भिन्न-भिन्न व्यावर्त्य, जैसे कि 'हस्तः करः ' - यहाँ पर एकार्थक दो पदों का भिन्न-भिन्न व्यावर्त्य नहीं होता ।
यह जो कहा गया कि, 'प्रकृष्टप्रकाशः चन्द्र: ' - यह लक्षण - वाक्य अखण्डार्थ का बोधक है, वह भी सत्य नहीं, क्योंकि वह वाक्य संज्ञा और संज्ञी के सम्बन्ध का प्रतिपादक होता है । ऐसा मानने पर प्रश्न और उत्तर वाक्य का वैरूप्य भी प्रसक्त नहीं होता, क्योंकि प्रश्न का भी 'कस्यात्र चन्द्रसंज्ञा ? ' - इस प्रकार संज्ञासंज्ञि सम्बन्ध ही विषय होता है । दृश्यमान चन्द्ररूप प्रातिपदिकार्थ के विषय में न प्रश्न हो सकता है और न उत्तर । फलतः संज्ञासंज्ञि सम्बन्धरूप अज्ञात वस्तु
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