________________
६३१/१२५४
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
प्राभाकर-मत की आलोचना-उक्त प्राभाकर सिद्धान्त युक्ति-युक्त नहीं, क्योंकि ज्ञान की स्वयंप्रकाशता का निराकरण आगे किया जायेगा । आत्मा भी अहंप्रत्यय-गम्य नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वत्र अर्थ-ज्ञानों में 'अहं जानामि'ऐसा व्यवहार नहीं देखा जाता । यह जो श्री शालिकनाथ ने कहा है कि "अवश्यं च ज्ञातुरवभासो ज्ञेयावभासेषु अनुवर्ततेइत्यास्थेयम्, अन्यथा स्वपरवेद्ययोरनतिशयः" (प्र.पं.पृ. १६८) । वह भी संगत नहीं, क्योंकि ज्ञान को आप स्वात्मसमवेत मानते हैं, इतने से ही स्वपर-वेदन में विशेषता आ जाती है । 'स्वात्मसमवेतत्व का ज्ञान भी व्यवहार का अङ्ग है' - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि यदि विषयप्रकाश में प्रकाशक का भी प्रकाश आवश्यक माना जाता है, तब सभी ऐन्द्रियक ज्ञानों में इन्द्रिय का ज्ञान भी आवश्यक हो जायेगा, किन्तु ऐसा नहीं होता, अतः सभी ज्ञानों में ज्ञान का ज्ञान आवश्यक नहीं । दूसरी बात यह भी है कि अक्ष (इन्द्रिय) के सम्बन्ध से उत्पन्न ज्ञान को ही प्रत्यक्ष' शब्द से कहा जाता है, किन्तु गुरु-मतानुसार अक्ष-सम्बन्ध रहित ज्ञानादि के ज्ञान में प्रत्यक्ष' शब्द की योजना किस व्युत्पत्ति से करेंगे ? अतः जैसे दिगादि पदार्थों को पूर्वापरादि-प्रतीतियों के द्वारा आप अनुमेय कहते हैं, वैसे ही आत्मा को भी अहंप्रत्यय के द्वारा अनुमेय मानना चाहिये, न कि प्रत्यक्ष । यह भी एक जिज्ञासा होती है कि, स्वप्रकाश ज्ञान के आश्रयीभूत आत्मा को भी आप स्वप्रकाश मानते हैं ? या नहीं ? यदि नहीं मानते तब आत्मा के ज्ञान में वैसे ही कारणान्तर की अपेक्षा माननी पडेगी, जैसे कि ज्ञान से घट प्रकाशित है, अतः प्रकाश की अपेक्षा घट में मानी जाती है । आत्मा को स्वप्रकाश मानने पर अपसिद्धान्तापत्ति होती है । यहाँ प्रकाशरूप अग्न्यादि के आश्रयीभूत काष्ठादि में दह्यमान अंश अङ्गाररूप होने के कारण प्रकाशरूप अग्नि से अभिन्न होता है और उससे अतिरिक्त काष्ठ का (प्रकाशानाश्रय) अंश घटादि के समान समीप में फैले हुए प्रकाश से प्रकाशित होता है अत: प्रकाशाश्रयत्वेन किसी भी वस्तु का प्रकाश देखने में नहीं आता । ___ शाङ्कर मत-अद्वैत वेदान्ती ज्ञान और ज्ञाता की एकता मानते हुए आत्मा की स्वयंप्रकाशता का समर्थन करते हैं । "अयं पुरुषः स्वयं ज्योति:" (बृह० उ० २/३/६), "आत्मैवास्य ज्योतिर्भवति" (बृह० उ० ४/३/६) इत्यादि वेदान्तवाक्यों को आत्मा की स्वयंप्रकाशता में प्रमाण माना जाता है । श्री चित्सुखाचार्य का (चित्सु० १/३) में सिंहनाद हैचिद्रूपत्वादेकात्मत्वात् स्वयंज्योतिरिति श्रुतेः । आत्मनः स्वप्रकाशत्वं को निवारयितुं क्षमः ।। __ शाङ्कर मत की आलोचना-ज्ञान और ज्ञाता की एकरूपता का निराकरण तो इसी प्रकरण में किया जायगा । आत्मा की स्वप्रकाशता में प्रदर्शित “स्वयं ज्योतिरसौ पुरुषः" (बृह० उ० २/३/६) इत्यादि वेदान्त वाक्य स्वयं “स मानसीन आत्मा जनानाम्" (चित्त्यु० ११/१/२) इत्यादि मानस ज्ञान विषयत्व-प्रतिपादक श्रुतियों से विरुद्ध पड जाता हैं, अत: उदाहत वेदान्त वाक्यों का आत्मा की स्वप्रकाशता में कदापि तात्पर्य नहीं हो सकता । 'आत्मा ज्ञानान्तराधीनप्रकाशः, व्यवहार्यत्वाद्, घटवत्'-इस अनुमान से भी विरुद्ध स्वप्रकाशत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती । 'आत्मा व्यवहार्य नहीं' - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि आपको ‘आत्मा व्यवहार्यो न भवति'-इस प्रकार के निषेध-व्यवहार की विषयता आत्मा में अवश्य माननी पडेगी, अन्यथा व्यवहार्यता का निषेध न हो सकने के कारण व्यवहार्यता अक्षुण्ण रह जाती है (श्री चिदानन्द भी यही कहते हैं-'आत्मा ज्ञानान्तराधीनप्रकाशः, व्यवहार्यत्वाद्, घटवत् । न च व्यवहार्यत्वमसिद्धम्
आत्मा व्यवहार्यो न भवतीत्यस्यैव व्यवहारस्य तदगोचरत्वेन स्ववचनविरुद्धत्वात । "अत्रायं परुषः स्वयंज्योतिः", "आत्मैवास्य ज्योतिरित्यादिवचनात् स्वप्रकाशत्वमिति चेत्, न, पूर्वोक्तप्रमाणविरुद्धार्थत्वात् “स मानसीन आत्मा जनानाम्" इति श्रुत्यन्तरविरुद्धत्वाच्च । तस्मादात्मा मानसप्रत्यक्षगम्यः" (नीति० पृ० १३०-३१) । ___ शङ्का-यदि आत्मा अपने ज्ञान का स्वयं आप विषय होता है, तब कर्तृत्व और कर्मत्व-दो विरुद्ध धर्म एक ही आत्मा में प्रसक्त होते हैं, किन्तु देवदत्तो ग्रामं गच्छति'-इत्यादि सभी स्थलों पर देवदत्त में गमन क्रिया का कर्तृत्व एवं उससे भिन्न ग्रामादि में कर्मत्व होता है, अतः कर्तृत्व और कर्मत्व का एकत्र रहना विरुद्ध क्यों नहीं ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org