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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) युगपदादि प्रतीतियों के द्वारा काल का अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'युगपदागतौ देवदत्तयज्ञदत्तो', 'चिरेणागतः पुत्रः'- इत्यादि प्रतीतियाँ क्या काल को विषय कहती हैं ? या अन्य पदार्थ को ? अन्यविषयक मानने पर कल से भिन्न यौगपद्यादि लिङ्गो का काल के साथ सम्बन्ध प्रत्यक्षतः निश्चय न होने के कारण यौगपद्याद्याश्रयत्वेन काल का परिशेषावधारण न हो सकेगा और यदि यौगपद्यादि लिङ्गों का काल के साथ सम्बन्ध प्रत्यक्षतः गृहीत होता है, तब काल में प्रत्यक्षत्व प्रसक्त होता है ।
यौगपद्यादि-प्रतीतियों को यदि कालविषयक माना जाता है, तब जिज्ञासा होती है कि, यौगपद्यापि प्रतीति प्रत्यक्ष माना जाता है ? अथवा लिङ्ग-जन्य ? लिङ्ग-जन्य नहीं मान सकते, क्योंकि यौगपद्यादि-प्रतीतियों को ही लिङ्ग माना जाता है, उनसे भिन्न नहीं, अतः उन्हीं प्रतीतियों की उत्पत्ति उन्हीं से मानने पर आत्माश्रयादि दोष होते हैं । यौगपद्यादिप्रतीतियों को इन्द्रिय-जन्य मानने पर काल में प्रत्यक्षत्व ही प्राप्त होता है, क्योंकि यौगपद्यादि-प्रतीतियों को कालविषयक एवं प्रत्यक्ष माना जाता है, प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय को प्रत्यक्ष कहा करते हैं । फलतः 'प्रातःकालोऽयम्', 'सायंकालोऽयम्'-इत्यादि प्रतीतियाँ सूर्योदयादि दर्शन - सहकृत नेत्र से उत्पन्न होती हैं, अतः काल में प्रत्यक्षता पर्यवसित होती है । यह काल छः इन्द्रियों में से प्रत्येक के द्वारा गृहीत होता है यह पहले कहा जा चुका है 1
इसी प्रकार पूर्वापरादि प्रतीतियाँ भी दिग्विषयक एवं नेत्र-जन्य हैं, अतः दिशाओं में भी प्रत्यक्षता सिद्ध होती है । प्रत्यक्ष सिद्ध दिक् का यदि पूर्वापरादि-प्रत्ययरूप लिङ्ग के द्वारा अनुमान किया जाता है, तब प्रत्यक्ष- सिद्ध घटादि का भी उनके ज्ञानों से अनुमान ही प्रसक्त होगा । अतः आकाशादिगत अप्रत्यक्षता के साधक अनुमान आकाशादिगत प्रत्यक्षत्व-प्रतीति की अन्यथानुपपत्तिरूप अर्थापत्ति से बाधित हो जाने के कारण अप्रमाण हो जाते हैं । (श्री चिदानन्द पण्डित ने इसी विषय का प्रतिपादन मनोरम ढंग से किया है- 'यत्पुनः युगपगदादिप्रत्ययाः काले लिङ्गमिति । तत्र प्रष्टव्यम्- किममी कालविषया: ? अन्यविषयाः वा कालविषया अपि किमक्षजन्याः ? लिङ्गजन्या वा ? न तावदक्षजन्याः कालविषयाश्च, कालस्य प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । नापि कालविषया लिङ्गजन्याः, लिङ्गस्य युगपदादिप्रत्ययरूपत्वेनात्माश्रयात् । अथान्यविषया, कथं तर्हि कालसिद्धि: ? अनेन क्रमेण दिशोऽपि पूर्वापरादिप्रत्ययानुमेयत्वं निरसनीयम् । यत्तु स्पर्शवत्त्वे सति महत्त्वं बाह्यप्रत्यक्षत्वस्य व्यापकमिति, तन्निवृत्तौ बाह्यप्रत्यक्षत्वस्यापि निवृत्तिः । तथा दिक्कालावप्रत्यक्षौ विशेषगुणशून्यद्रव्यत्वात् मनोवद् - इत्यादि तदुक्तेन क्रमेण दिक्कालयोरप्रत्यक्षत्वे स्वरूपस्यैवासिद्धेः तत्स्वरूपसिद्ध्यन्यथानुपपत्तिप्रसूतार्थापत्तिबाधितविषयत्वादसाधनमेव' ( नीति० पृ० ४३-४४) ।]
आकाश एक एवं विभु होने पर भी घटादि उपाधियों के द्वारा घटाकाशादि अनेक परिच्छिन्न रूपों एवं कर्णशष्कुलिरूप उपाधि से उपहित होकर श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में व्यवहृत होता है ।
कभी एक एवं विभु द्रव्य है फिर भी उसमें औपाधिक क्षणादि भेदव्यवहार हो जाता है, जैसे कि पन्द्रह निमेष की एक काष्ठा, ३० काष्ठाओं का एक मुहूर्त, ३० मुहूर्तो का एक अहोरात्र, ३० अहोरात्र का एक मास, बारह मास का एक वर्ष है। इसी प्रकार युगादि के व्यवहार भी होते हैं । दिक् का भी पूर्व-परादि उपाधियों के आधार पर भेद-व्यवहार होता है।
(९) आत्मा - आत्मा चैतन्य का आश्रय होता है । आत्मा मानस प्रत्यक्ष का विषय माना जाता है ।
प्राभाकर मत - श्री प्रभाकर का कहना है कि 'इदमहं जानामि' - ऐसा व्यवहार तब तक नहीं बन सकता, जब तक आत्मा और ज्ञान का प्रकाश प्रत्येक ज्ञान में न माना जाय, अतः सभी ज्ञानों में स्वात्मा का कर्तृत्वेन और ज्ञान का ज्ञानत्वेन भान होता है । आत्मा अहंप्रतीति का विषय एवं ज्ञान स्वयंप्रकाश होने के कारण प्रत्यक्ष होता है ।
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