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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
___ यह जो श्री उदयनाचार्य ने प्रामाण्य के परतस्त्व में अनुमान-प्रयोग किया है-"प्रमा ज्ञानहेत्वतिरिक्तहेत्वधीना, कार्यत्वे सति तद्विशेषाद्, अप्रमावत्" (न्या.कु. २/१) । वह अनुमान इसलिए निरस्त हो जाता है कि 'प्रमा गुणदोषाभावयोरन्यतराधीना न भवति, ज्ञानत्वाद्, अप्रमावत्'-इस अनुमान के द्वारा बाधित हो जाता है । सविशेषण हेतु से उत्पन्न पूर्व अनुमान उस अनुमान से बाधित हो जाता है, जो कि विशेषण-रहित हेतु से उत्पन्न होता है, क्योंकि विशेषण-सापेक्ष हेतुक अनुमान की अपने कार्य-साधन में उतनी त्वरा नहीं हो सकती, जैसी कि विशेषणनिरपेक्षहेतुक अनुमान की होती है।
इसी प्रकार प्रामाण्य के ज्ञान में भी स्वतस्त्व मानना ही उचित है, क्योंकि 'तथाभूतोऽयमर्थः'-इस प्रकार अर्थगत तथात्वावधारण से प्रामाण्य का और 'अतथाभूतोऽयमर्थः'-इस प्रकार पदार्थगत अतथात्वावधारण से अप्रमात्व का ज्ञान होता है । उनमें पदार्थ के तथात्व का निश्चय ज्ञानस्वरूप के अधीन होता है, अत: प्रामाण्य की स्वतः अवगति का होना नैसर्गिक है, किन्तु पदार्थ का अतथात्वावधारण कारणगत दोष के निश्चय पर निर्भर होता है या बाधक प्रत्यय पर, अत: अप्रामाण्यावगम परत: होता है, क्योंकि अप्रमाण ज्ञान अतथाभूत अर्थ को तथाभूतरूप में प्रदर्शित करता है, जैसा कि विपर्यय का लक्षण वार्तिककारने कहा-"को विपर्ययः ? अतस्मिंस्तदिति प्रत्ययः" (न्या.वा.पृ. २४) । यद्यपि तथाभूतार्थ-निश्चय को प्रामाण्य-निश्चय ही माना जाता है, तथापि अतथाभूत अर्थ में तथाभूतार्थ का निश्चय भ्रम होता है, बाधक प्रत्यय से उसमें भ्रमत्व पर्यवसित होता है ।
यदि अर्थतथात्व-निश्चय भी भ्रमात्मक होता है, तब अर्थतथात्वावधारण के द्वारा प्रामाण्य-निश्चय क्योंकर होगा ? इस शङ्का का समाधान यह है कि, सदा तो ऐसा नहीं होता, कदाचित बाष्प में धम-भ्रम के हो जाने पर भी धम के द्वारा अग्नि का अनुमान सुकर होता है । यह जो कहा जाता है कि, 'तथाभूतोऽयमर्थः' इस प्रकार का प्रामाण्यावधारण अर्थक्रियाज्ञानादिरूप परपदार्थ से होने के कारण परत: गृहीत होता है। वह कहना उचित नहीं, क्योंकि इस पक्ष में जिज्ञासा होती है कि, यह अर्थक्रिया-ज्ञानगत प्रामाण्य स्वतः ज्ञात होता है ? अथवा परतः गृहीत होता है ? परतः मानने पर अनवस्था होगी, क्योंकि एक अर्थक्रिया-ज्ञान को अपने प्रामाण्यावधारण में दूसरे और दूसरे को तीसरे की अपेक्षा होती जाती है । यदि अर्थक्रिया-ज्ञान में स्वतः ही प्रामाण्य का निश्चय माना जाता है, तब मूलभूत प्रथम ज्ञान ने क्या बिगाडा है कि उसके प्रामाण्य का अवधारण परत: पक्ष में फेंक दिया गया है ? ___ यह जो कहा जाता है कि, समर्थ प्रवृत्ति-जनकत्वरूप हेतु के द्वारा प्रथम ज्ञान के प्रामाण्य का अनुमान होता है । वह उचित नहीं, क्योंकि 'इदं ज्ञानं प्रमाणम, समर्थप्रवृत्तिजनकत्वात'-यह अनमान स्वप्नगत कामिनीदर्शनरूप अप्रमाण ज्ञान में व्यभिचरित है, क्योंकि वह ज्ञान भी आलिङ्गनादिरूप समर्थ प्रवृत्ति का जनक होता है ।
यह जो कहा गया कि, 'ममेदमुत्पन्नं ज्ञानं प्रमाणम् ? अप्रमाणं वा ?'-इस प्रकार का सन्देह यह सिद्ध करता है कि ज्ञानगत प्रामाण्य का स्वत: अवधारण नहीं होता । वह कहना भी सत्य नहीं, क्योंकि सभी ज्ञानों में वैसा सन्देह नहीं देखा जाता । जहाँ कहीं किसी भ्रम को देखकर प्रकत ज्ञान में 'तादशमिदं ज्ञानम ? उतान्याश हो जाता है, वहाँ भी ज्ञान का स्वरूप प्रथमतः ही अपने विषयतथात्व (प्रामाण्य) का अवधारण करा देता है । विषयगत दूरत्वादि, करणगत तिमिरादि और मनोगत व्यग्रत्वादि दोषों के अभाव का ज्ञान केवल अतथाभाव की शङ्का के निवारण में ही उपयोगी होता है, ज्ञानस्वरूपाधीन विषयतथात्वावधारण और विषयतथात्वावधारण के अधीन प्रामाण्यनिश्चय में नहीं । फलतः ज्ञानगत प्रामाण्य स्वतः गृहीत है, यहाँ 'स्व' शब्द का अर्थ स्वकीय है, अत: स्वाश्रयीभूत ज्ञान के अधीन विषयतथात्वावधारण से गृहीत स्वगत प्रामाण्य स्वतोगृहीत कहा जाता है, इस प्रकार प्रामाण्य-ज्ञप्ति में भी स्वतस्त्व सिद्ध हो गया ।
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