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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम)
६२७/१२५० व्यापार से घटादि की अभिव्यक्ति होती है, वैसे ही कारणगत गुण-दोषों के द्वारा प्रामाण्य और अप्रामाण्य की अभिव्यक्ति हो जाती है । इस प्रकार सत्कार्यवादी सांख्याचार्यों का मत वार्तिककार ने दिखाया है-"स्वतोऽसतामसाध्यत्वात् केचिदाहुयं स्वतः" (श्लो० वा० पृ० ५४) ।
सांख्य मत की आलोचना-यदि असत् पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती, तब घटादि की अभिव्यक्ति के विषय में जिज्ञासा होती है कि, वह कारक-व्यापार से पहले मृत्पिण्ड में है ? अथवा नहीं ? यदि है, तब कारक-व्यापार व्यर्थ है
और यदि नहीं है, तब असत् अभिव्यक्ति की कारक-व्यापार से उत्पत्ति माननी होगी, असत् की उत्पत्ति का प्रतिषेध कैसे करेंगे ? अतः प्रामाण्य और अप्रामाण्य-दोनों को स्वतः नहीं मानना चाहिए । दूसरी बात यह भी है कि जल और अग्नि के समान अत्यन्त विरुद्ध प्रामाण्य और अप्रामाण्य का समावेश एक ही ज्ञान में नहीं हो सकता यही वार्तिककार कहते हैं-"स्वतस्तावद् द्वयं नास्ति विरोधात्" (श्लो० वा० पृ० ५५) ।
(२) तार्किक मत-कारणगत गण से प्रामाण्य और दोष से अप्रामाण्य की उत्पत्ति और ज्ञप्ति (ज्ञान) मानी जाती है। प्रामाण्य (प्रमात्व) की स्वतः उत्पत्ति का अर्थ है-प्रमात्व के आधारभूत ज्ञान की उत्पादिका सामग्री से ही ज्ञानगत प्रमात्व या प्रामाण्य की उत्पत्ति । प्रमात्व की उत्पत्ति यदि केवल अपने आश्रयीभूत ज्ञान की उत्पादिका सामग्री से मानी जाय, तब अप्रमाणभूत ज्ञान में भी प्रामाण्य की उत्पत्ति माननी होगी, क्योंकि वहाँ भी ज्ञान सामान्य की उत्पादिका सामग्री विद्यमान है, अन्यथा अप्रमाणभूत ज्ञान भी उत्पन्न न हो सकेगा । उसी प्रकार अप्रामाण्य की उत्पत्ति भी यदि अपने आश्रयीभूत ज्ञान के उत्पादक कारणकलाप से मानी जाती है, तब प्रमाणभूत ज्ञान में भी अप्रामाण्य मानना होगा, अत: प्रत्यक्षादि ज्ञानों के कारणीभूत इन्द्रियादि पदार्थों के गुणों से ज्ञानगत प्रामाण्य और उनके दोषों से अप्रामाण्य का उद्भव माना जाता है-इसे ही 'उत्पत्तौ परतस्त्वम्' कहते हैं ।
इसी प्रकार प्रतिपत्ति (प्रमात्व के ज्ञान) में भी परतस्त्व ही मानना युक्ति-युक्त है, क्योंकि यदि आश्रयीभूत ज्ञान की ग्राहक सामग्री से ही ज्ञानगत प्रामाण्य और अप्रामाण्य का ज्ञान हो जाता है, तब किसी को भी 'ममेदं ज्ञान प्रमा ? न वा ?' इस प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए, क्योंकि संशय-घटक दो कोटियों में से किसी एक का निश्चय हो जाने पर संशय नहीं हुआ करता, अन्यथा स्थाणुत्व-निश्चय हो जाने पर भी 'स्थाणुर्वा ? पुरुषो वा ?' ऐसा संशय होना चाहिए । तब प्रामाण्य का ज्ञान कैसे होता है ? इस प्रश्न का सीधा उत्तर है-अनुमान से । वह अनुमान-प्रकार है-'ममेदमुत्पन्न ज्ञानं प्रमाणम्, समर्थप्रवृत्तिजनकत्वात्, यनैवं तन्नैवं यथा-प्रमाणाभासः । अतः प्रवृत्ति का साफल्य हो जाने के अनन्तर ही प्रामाण्य का अनुमान हुआ करता है । इसी प्रकार अप्रामाण्य ज्ञान के लिए भी अनुमान कर लेना चाहिए-'इदं ज्ञानमप्रमाणम, निष्फलप्रवृत्तिजनकत्वात, यन्नैवं तन्नैवं यथा-प्रमाणज्ञानम । इस प्रकार प्रामाण्य और अप्रामाण्य-दोनों ही कारणगत गुण और दोष के आधार पर उत्पन्न एवं प्रवृत्ति के साफल्यासाफल्य से गृहीत होते हैं ।
तार्किक मत की आलोचना-यदि ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य अपनी उत्पत्ति में हेत्वन्तर की अपेक्षा किया करते हैं, तब हेत्वन्तर की उपस्थिति के पूर्व उत्पन्न ज्ञान को प्रमा या अप्रमा कुछ भी नहीं कह सकते, उसे फिर क्या कहेंगे ? ज्ञान की प्रमा और अप्रमा-दो ही विधाएँ होती हैं, दोनों के न कह सकने पर उसे 'ज्ञान' पद से भी नहीं कहा जा सकेगा, वार्तिककार ने भी यही प्रश्न उठाया है-"किमात्मकं भवेत् तच्च स्वभावद्वयवर्जितम्" (श्लो॰वा०पृ० ५५) । उस ज्ञान को संशयात्मक मानने में अनुभव का विरोध होता है । दूसरी वात यह भी है कि, संशय ज्ञान भी अप्रमाण का ही एक भेद है. इसे परतस्त्ववादी स्वत: क्योंकर मान सकेगा । यह जो प्रामाण्य के स्वतस्त्व-पक्ष में आप प्रामाण्य को ज्ञान-हेतुमात्र के अधीन मानने पर शुक्ति-रजतादि प्रमाणाभास ज्ञानों में प्रामाण्य-प्रसङ्ग होता है । वह हमें (भाट्टगणों) को अभीष्ट ही है, क्योंकि वहाँ भी पुरोवर्तित्व, शुक्लत्व, भास्वरत्वादि अंशों में प्रामाण्य माना ही जाता है ।
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