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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) समाधान-जैसे आप अद्वैत वेदान्ती के सम्मत "आत्मा स्वयंज्योतिषा आत्मानं प्रकाशयति " - इत्यादि व्यवहारों के आधार पर आत्मा में कर्तृत्व, करणत्व और कर्मत्व- तीनों विरुद्ध धर्मों का एकत्र समावेश माना जाता है, वैसे ही हमारे मत में कर्तृत्व और कर्मत्व का एकत्र समावेश क्यों नहीं हो सकता ? लौकिक और वैदिक प्रयोगों के आधार पर भी कर्तृत्व और कर्मत्व की एकत्र सिद्धि होती है, क्योंकि 'आत्मानं जानीहि ' - ऐसा लौकिक जन प्रयोग करते हैं और " आत्मा वाऽरे द्रष्टव्य:" (बृह० उ० २/४/५) इत्यादि वैदिक प्रयोग प्रसिद्ध । जैसे देवदत्तगत गमन क्रिया से जनित प्राप्ति रूप फल की आश्रयतारूप कर्मता ग्रामादि में मानी जाती है, वैसे ही आत्मवृत्ति ज्ञान से जनित प्राकट्यरूप फल की आधारता आत्मस्वयं प्रकाशवादियों को भी माननी होगी, अन्यथा आत्मा का प्रकाश नहीं हो सकेगा, अतः आत्मा मानस प्रत्यक्ष का विषय होने के कारण प्रत्यक्ष माना जाता है ।
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वह आत्मा देह, इन्द्रिय, ज्ञान और सुखादि से भिन्न, शरीर-भेद से नाना, विभु, नित्य तथा स्वर्गापवर्गादि फलों का भोक्ता माना जाता है ।
चार्वाकगणों का जो कहना है कि 'स्थूलोऽहम्', 'कृशोऽहम् ' - इत्यादि प्रतीतियाँ शरीरगत स्थौल्यादि को ही विषय करती है, अतः स्थौल्य, कार्श्यादि धर्मों का आधारभूत भौतिक शरीर ही आत्मा है । उनका वह कहना अयुक्त है, क्योंकि आत्मा के सुख-दुःखादिरूप विशेष गुण कभी भी शरीर के गुण नहीं माने जा सकते, क्योंकि गुण यावद् द्रव्यभावी अर्थात् जब तक उनका आश्रयीभूत द्रव्य रहता है, तब तक उसमें विद्यमान रहते हैं, किन्तु मृत शरीर में सुखदुःखादि का अनुभव नहीं होता, अतः वे शरीर के गुण क्योंकर होंगे ? अतः सुख-दुःखादि का शरीर से भिन्न आश्रय मानना होगा । फलतः सुख-दुःखादि का आश्रयीभूत आत्मा का सुखादि के अनाश्रयीभूत शरीर से सिद्ध हो गया । 'स्थूलोऽहम्', 'कृशोऽहम्' इत्यादि व्यवहार शरीर और आत्मा का घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण वैसे ही औपचारिक हो जाते हैं, जैसे अग्नि के सम्बन्ध से जल में उष्णता का व्यवहार । जो वस्तु जहाँ नहीं होती, वहाँ उसके व्यवहार को औपचारिक या भाक्त माना जाता है, शरीर में भी आत्मा का अभेद नहीं, भेद ही रहता है, क्योंकि 'मम शरीरम्' - इस प्रकार का भेद - व्यवहार सार्वजनीन है ।
इन्द्रियों को भी आत्मा नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन्द्रियों में बाह्य इन्द्रियाँ तो भौतिक ही होती है, पृथिव्यादि भूतों में आत्मा के चैतन्यादि गुण उपलब्ध नहीं होते, कारण के गुण ही कार्य में सजातीय गुणों के आरम्भक माने जाते हैं, अतः अचेतनात्मक भूतों के कार्यभूत बाह्य इन्द्रियों में चैतन्य या आत्मत्व कभी सिद्ध नहीं हो सकता । आन्तर इन्द्रिय केवल मन है, वह अपरोक्षभूत आत्मा में विद्यमान सुख-दुःखादि गुणों की अपरोक्षता का साधन है, साधन या करण का कर्त्ता से नैसर्गिक भेद होता 1
योगचार - सम्मत विज्ञान को भी आत्मा नहीं कह सकते, क्योंकि विज्ञान क्षणिक होता है और 'योऽहं प्राक् दुःखमन्वभूवम् स एवेदानीं सुखमनुभवामि ' - इस प्रकार पूर्वापरकालीन आत्मा की एकत्व - प्रत्यभिज्ञा से आत्मा में क्षणिकत्व - विरोधी स्थिरत्व सिद्ध होता है । आत्मा को सुखरूप भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि 'यस्य में पूर्व सुखमासीत् तस्यैवेदानीं दुःखमनुवर्तते इस प्रकार पूर्वापरकालीन आत्मा की एकता का भान होने पर भी सुख की निवृत्ति का अनुसन्धान हो रहा है, अतः आत्मा को सुख रूप क्यों मान सकेंगे ?'
औपनिषद मत - वेदान्तिगण "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" (बृह० उ० ३ / ९ / ३४ ) इत्यादि वेदान्त वाक्यों के बल पर आत्मा को विज्ञानानन्दरूप कहते हैं । 'विज्ञान क्षणिक है और आत्मा स्थिर, अतः आत्मा विज्ञानरूप क्योंकर होगा ? इस प्रकार का सन्देह इस औपनिषद मत में नहीं कर सकते, क्योंकि इसमें विज्ञान को भी नित्य ही माना जाता
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