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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् )
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श्री उदयनाचार्य ने जो अनुमान किया है कि 'प्रामाण्यं परतो ज्ञायते, अनभ्यासदशायां सांशयिकत्वाद्, अप्रामाण्यवत्' (न्या.कु. २/१) । वह भाट्टगणों के लिए सिद्ध-साधन है, क्योंकि वे भी विषयतथात्वावधारणरूप पर पदार्थ से ही प्रामाण्य का अवधारण मानते हैं । इन्हीं युक्तियों के द्वारा 'अप्रामाण्यं स्वतः, प्रामाण्यं परत: ' - यह बौद्धसिद्धान्त भी निरस्त हुआ समझ लेना चाहिए ।
स्वरूपाणि निरूप्यन्ते व्योमादीनामथ क्रमात् । नित्यानि चानवयवद्रव्याणि च विभूनि च ।। २० ।। व्योमकालदिशामादौ प्रत्यक्षत्वं समर्थ्यते । अनिष्टं भट्टपादोक्तिमाधुर्यानभिलाषिणाम् ।। २१ ।। अक्षसम्बन्धहीनात्मस्वात्मप्रत्यक्षतार्थिनः । प्रत्यक्षशब्दव्युत्पत्तिः कथङ्कारं भवेद् गुरोः ।। २२ ।। स च देहेन्द्रियज्ञानसुखेभ्यो व्यतिरिच्यते । नानाभूतो विभुर्नित्यो भोगस्वर्गापवर्गभाक् ।।२३।। वाक्यार्थं हि गुरुः कार्यमखण्डं शङ्करोऽब्रवीत् । संसर्गापरपर्यायं विशिष्टं ब्रूमहे वयम् ।। २४ ।। पृथिवी, जल, तेज, वायु और तमस्-ये पाँच अवयवी द्रव्य और इनके आरम्भक परमाणु द्रव्य सिद्ध हो गए । आकाशादि निरवयवी और विभु द्रव्यों का क्रमशः निरूपण किया जाता है ।। २० ।।
आचार्य शङ्कर के अनुयायी वेदान्तिगण " तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः " ( तै० उ० २/१/१) इस श्रुति के अनुरोध पर गगनादि में जो अनित्यत्व सिद्ध करते हैं, वह युक्त नहीं, क्योंकि 'विवादपदानि द्रव्याणि नित्यानि, निरवयवद्रव्यत्वाद्, आत्मवत्' इत्यादि अनुमानों का विरोध देखकर उक्त श्रुति का यथाश्रुतार्थ में प्रामाण्य नहीं माना जा सकता ।
(६-८) आकाश, काल और दिक्- -मन को छोड़ कर आकाश, काल, दिक्, आत्मा और शब्द-ये पाँच द्रव्य प्रत्यक्ष माने जाते हैं । सर्व-प्रथम आकाश, काल और दिशा की उस प्रत्यक्षता का समर्थन किया जाता है, जो कि भट्टपादोक्तिगत माधुर्य के रसास्वादन से वञ्चित व्यक्तियों को अभीष्ट नहीं ।। २१ ।। 'दिक्कालाकाशाः, प्रत्यक्षाः अमन सि विभुत्वाद्, आत्मवत्' - इस अनुमान के द्वारा दिक्, काल और आकाश की प्रत्यक्षता सिद्ध होती है । यदि इनका प्रत्यक्ष नहीं माना जाता, तब इनका स्वरूप ही सिद्ध न हो सकेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष को छोडकर इनमें अन्य कोई भी प्रमाण नहीं । (श्री चिदानन्द पण्डित ने भी कहा है कि " आकाशं प्रत्यक्षम्, अमनस्त्वे सति विभुत्वादात्मवत् (नीति० पृ० ६७) । न च कालो न प्रत्यक्षः, अमनस्त्वे सति विभुत्वाद्, आत्मवदिति प्रत्यक्षत्वसाधनात् । किं च यदि कालो न प्रत्यक्षः स्यात्, न स्यादेव तर्हि तत्सद्भावावेदकप्रमाणानुपपत्तेः " ( नीति० पृ० ४१) ।
शङ्का-आकाशादि में प्रत्यक्षातिरिक्त प्रमाण का अभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शब्द विशेष गुण है, कोई भी गुण अपने आश्रयीभूत द्रव्य के बिना नहीं रह सकता । शब्दरूप गुण का आश्रय अन्य कोई द्रव्य नहीं हो सकता, अतः शब्दाश्रयत्वेन आकाश की सिद्धि हो जाती है । काल युगपदादि व्यवहारों और पूर्वापरादि प्रतीतियों के द्वारा अनु है ।
समाधान- शब्द गुण नहीं, अपितु स्वतन्त्र द्रव्य है - यह आगे कहा जायेगा, अतः शब्दगुणाश्रयत्वेन आकाश की सिद्धि नहीं की जा सकती । शब्द को गुण मान लेने पर भी दिशा या काल को ही उसका आश्रय माना जा सकता है, उनसे भिन्न आकाश की सिद्धि नहीं हो सकती । आकाशरूप अप्रसिद्ध द्रव्य की कल्पना से दिशादि प्रसिद्ध द्रव्यों को ही शब्द गुण का आश्रय मान लेने में लाघव है । दूसरी बात यह भी है कि, क्या बालक, क्या वृद्ध, सभी को आँख खोलते ही प्रत्यक्ष हो जाता है जिस आकाश का, उसे अप्रत्यक्ष माननेवाले प्राभाकरादि तो उनकी हथेली पर रखे आंबले को भी अप्रत्यक्ष कह सकते है, उनका क्या विश्वास ?
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