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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५
कहने का सार यह है कि, जब इन्द्र पद से स्वर्ग के अधिपति का और ऐश्वर्य से रहित भृत्य आदि का बोध होता है तब वाचक और वाच्य का भेद स्पष्ट रहता है । कभी कभी इन्द्र पद का प्रयोग उन वर्णों के समुदाय में भी किया जाता है । जिनके समुदाय को इन्द्र कहा जाता है । 'इन् अ' इनका क्रम से समुदाय इन्द्र पद रूप है इसको भी इन्द्र कहा जाता है । इन्द्र का उच्चारण करो, इस प्रकार जब कहते हैं, तब इन्द्र शब्द का वाच्य इन्द्र इतना वर्णो का समुदाय होता है । यह भी नाम निःक्षेप है । इस प्रकार के नाम निःक्षेप में वाच्य और वाचक का स्पष्ट भेद नहीं प्रतीत होता । यहाँ भी अर्थ की उपेक्षा करके संकेत के कारण इन्द्र पद वर्णों के समुदाय का वाचक है ।
मुख्य
स्थापना निक्षेप का स्वरूप यत्तु वस्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण स्थाप्यते चित्रादौ तादृशाकारम्, अक्षादी च निराकारम्, चित्राद्यपेक्षयेत्वरं नन्दीश्वरचैत्यप्रतिमाद्यपेक्षया च यावत्कथिकं स स्थापना निःक्षेपः, यथा जिनप्रतिमा स्थापनाजिनः, यथा चेन्द्रप्रतिमा स्थापनेन्द्रः । (जैनतर्क भाषा )
अर्थ जो वस्तु उस अर्थ से रहित हो और उसके अभिप्राय से स्थापित हो वह स्थापना निःक्षेप है। चित्र
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आदि में वह उस वस्तु के समान आकारवाला होता है और अक्ष आदि में आकार रहित होता है। चित्र आदि की अपेक्षा से वह अल्पकाल तक स्थिर रहनेवाला (इत्वरकालिक) होता है और नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यों की प्रतिमा की अपेक्षा से यावत्कथिक होता है। जैसे जिन प्रतिमा स्थापना जिन है और इन्द्र की प्रतिमा स्थापना इन्द्र है ।
कहने का सार यह है कि, दो अर्थों में भेद होने पर एक में जो अन्य के अभेद का आरोप किया जाता है वह स्थापना है । मन के द्वारा भेद में अभेद का आरोप होता है । यह अभेद का आरोप स्थापना का मूलभूत तत्त्व है । अभेद का आरोप कहीं पर समान आकार को लेकर किया जाता है और कहीं पर आकार के समान न होने पर भी किया जाता है। गौ अथवा अश्व के आकार को काष्ट में, पत्थर में वा पत्र में देखकर कहा जाता है 'यह गौ है, यह अश्व है ।' देखने वाला काष्ट आदि के और गौ आदि के भेद को जानता है, पर आकार के समान होने से चेतन गौ आदि का अचेतन काष्ठ आदि में आरोप करता है। एक अचेतन में भिन्न अचेतन का भी आरोप किया जाता है । वृक्ष पर्वत आदि के चित्र को वृक्ष और पर्वत समझकर व्यवहार चलता है, इस प्रकार के व्यवहार का मूल स्थापना है। इस प्रकार की स्थापना सद्भाव स्थापना कही जाती है। आकार में समानता न होने पर जब भिन्न आकार के अर्थ में अभेद मान लिया जाता है तब असद्भाव स्थापना होती है। अक्ष आदि में जब जिनेन्द्रदेव आदि की स्थापना होती है तब असद्भाव स्थापना होती है । जिनेन्द्र देव और अक्षों में आकार का साम्य किसी अंश में नहीं है । आकार समान नहीं है, इसलिए अक्ष में देव की स्थापना को निराकार कहा है, अक्ष सर्वथा आकार शून्य नहीं है। यहाँ पर निराकार शब्द का आकार पद, समान आकार के लिए प्रयुक्त हुआ है ।
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि, स्थापना के लिए समान अथवा असमान आकार का होना आवश्यक नहीं है । किसी प्रकार का आकार न होने पर भी वस्तु में आकार का आरोप कर लिया जाता है । अकार इकार आदि वर्णो का कोई छोटा-बडा आकार न चक्षु से दिखाई देता है और न त्वचा से छुआ जा सकता है । फिर भी अकार आदि के आकारों की कल्पना अनेक प्रकार के स्वरूपों में की जाती है और उसके द्वारा व्यवहार चलता है। वर्णों की भिन्न भिन्न लिपियाँ अभेद के आरोप से उत्पन्न हुई हैं। पत्र पर स्याही से एक आकार को लिखते हैं और उसको अकार अथवा इकार कहते हैं । लिखा हुआ आकार चक्षु से देखा जाता है पर उच्चारण से उत्पन्न होनेवाला शब्द चक्षु के द्वारा प्रतीत होने वाले आकार शून्य है । निराकार वर्ण का कल्पित आकार में अभेद मान लिया जाता है। यह अभेद का आरोप नेत्र के द्वारा देखने योग्य से शून्य 'वर्ण की रेखाओं में आरोप किया गया है, इसलिए निराकार कहा जा सकता है।
आकार
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