________________
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् )
६१९ / १२४२
है, अत एवं अनुष्णाशीत स्पर्श उपलब्ध होता है, इसी प्रकार सुवर्ण का अपने आप प्रकाश न होकर प्रकाशान्तर से ही प्रकाश होता है, अतः उसके रूप का अभिभव भी सिद्ध हो जाता है । चन्द्र की प्रभा में जल के स्पर्श से तेज का उष्ण स्पर्श अभिभूत हो जाता है।
(४) वायु - नीरूप और सस्पर्श द्रव्य वायु है । वह मन्दादिगतिक और निःश्वासादि स्वरूप है, वही त्वगिन्द्रियरूप भी है । इन्द्रियरूप भूत तत्त्व अर्थापत्ति- गम्य है - यह पहले ही समर्थित हो चुका है । अन्य भूत-वर्ग तो प्रत्यक्ष का विषय ही होता है । पृथिवी, जल और तेज की प्रत्यक्षता में कोई विवाद नहीं ।
वैशेषिक मत-वैशेषिको का कहना है कि, अनुभूयमान अनुष्णाशीत स्पर्श के द्वारा वायु का अनुमान किया जाता है, जैसा कि, महर्षि कणाद का सूत्र है- 'न दृष्टानां स्पर्श इत्यदृष्टलिङ्गो वायुः' ( वै सू० २।१० ) अर्थात् यह वायु के चलने पर अनुष्णाशीत (उष्णता और शीतता से रहित) स्पर्श त्वगिन्द्रिय के द्वारा गृहीत होता है, वह आकाशादि का नहीं हो सकता, क्योंकि वे स्पर्श गुण से रहित होते हैं एवं वह स्पर्श जल और तेज का भी नहीं हो सकता, क्योंकि जल में शीत और तेज में उष्ण स्पर्श होता है किन्तु वह स्पर्श न शीत होता है और न उष्ण, अनुष्णाशीत है । पृथिवी को भी उस स्पर्श
का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि पृथिवी नेत्र - ग्राह्य है, किन्तु वायु के चलने पर आकाश में जो स्पर्श अनुभूत होता है, उसका आधार दिखता नहीं । परिशेषतः उस स्पर्श का आश्रय वायु सिद्ध हो जाता है ।
वैशेषिक मत निरास: वैशेषिकों का उक्त मत उनकी अनभिज्ञता का परिचायक है, क्योंकि जैसे प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष के आधार पर आप एक आत्मा की सिद्धि करते है, वैसे ही शीतादि स्पर्शों का ग्रहण हो जाने पर 'शीतो वायुः', 'उष्णो वायुः', 'अनुष्णाशीतो वायुः ' इस प्रकार सर्वत्र एक वायु द्रव्य की प्रत्यभिज्ञा होती है । 'कृष्णो घटः ' 'पीतो घटः', 'श्वेतो घटः '- इत्यादि के समान ही उक्त सभी अनुभवों में अनुगत एक वायु द्रव्य की सर्वजनीन प्रत्यभिज्ञा होने पर आप (वैशेषिक) जो कहते हैं कि 'हमें स्पर्शमात्र की ही प्रत्यभिज्ञा होती है, उससे भिन्न किसी द्रव्य की नहीं ।' वह सर्वथा अनुभव- विरुद्ध है । श्री चिदानन्द भी ऐसा ही अनुभव दिखाते हैं, 'न च तत्र स्पर्शमात्रं प्रत्यभिज्ञाविषयः, परस्परविलक्षणतया स्पर्शानुसन्धानसमय एव वायुद्रव्यस्य प्रत्यक्षत्वात्' (नीति० पृ० ६७) । वायु की प्रत्यक्षता में श्री चिदानन्द पण्डित ने ही (नीति० पृ० ६६ पर) अनुमान - प्रयोग किया है - 'वायुः प्रत्यक्षः महत्वानिन्द्रियत्वे सति स्पर्शवत्त्वाद्, भूतत्वाद् वा घटवत् । (यहाँ पार्थिवादि परमाणुओं और त्वगादीन्द्रिय में व्यभिचार हटाने के लिए क्रमशः महत्त्ववत्त्व और अनिन्द्रियत्व विशेषण रखे गये हैं) । यह जो वायु की अप्रत्यक्षता सिद्ध करने के लिए अनुमान किया जाता है- " वायुः अप्रत्यक्षः अनात्मत्वे सति नीरूपद्रव्यत्वाद्, मनोवत् ।' वह दिक् और कालादि में अनैकान्तिक है, क्योंकि दिक्कालादि अरूपी द्रव्य हमारे (भट्ट) मत में प्रत्यक्ष ही माने जाते है । (चिदानन्दपण्डित भी कहते हैं- 'यत्पुनरप्रत्यक्षो वायुः, आत्मव्यतिरिक्तत्वे सति नीरूपद्रव्यत्वान्मनोवदित्यादि, तद् दिक्कालादीनां प्रत्यक्षत्वसमर्थनेनानै-कान्तिकीकरणीयम्' (नीति० पृ० ६७) ।
वैशेषिकगण परिशेषतः जो वायु की सिद्धि किया करते हैं, वह भी उचित नहीं, क्योंकि अप्रसिद्ध द्रव्य की कल्पना से प्रसिद्ध द्रव्य में ही गुणान्तर की कल्पना लघुतर मानी जाती है, कल्पना- लाघव को विशेष महत्त्व दिया गया हैकल्पनालाघवं यत्र तं पक्षं रोचयामहे । कल्पनागौरवं यत्र ते पक्षं न सहामहे ।। अतः त्वगिन्द्रिय के द्वारा वायु का प्रत्यक्ष होता है- यह सिद्ध हो गया ।
कलायकोमलच्छायं दर्शनीयं भृशं दृशाम् । तमः कृष्णं विजानीयादागमप्रतिपादितम् ।।८।। गुणकर्मादिसद्भावादस्तीति प्रतिभासतः । प्रतियोग्यस्मृतेश्चैव भावरूपं ध्रुवं तमः ।। ९ ।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org