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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) नीलादिरूपयुक्तस्य स्पर्शत्वं च दृश्यते । स्पर्शाभावान रूपि स्यात् तम इत्यप्यपेशलम् ।।१०।। स्पर्शयुक्तस्य सर्वत्र रूपवत्त्वं च दृश्यते । रूपाभावेन वायोरप्यस्पर्शत्वप्रसङ्गतः ।।११।। जालरन्ध्रविसरद्रवितेजोजालभासुरपदार्थविशेषान् । अल्पकानिह पुन: परमाणून्कल्पयन्ति हि कुमारिलशिष्याः ।।१२।। शरीरेण विना यन्त्र कर्ता कुत्रापि दृश्यते । विशेषणविरुद्धं तत् कर्तृत्वमशरीरिणः ।।१३।। लोकस्यात्यन्तिको नाशो वैदिकानां न सम्मतः । महतां वेदमार्गाणां स्रोतोभङ्गप्रसङ्गतः ।।१४।।
(५) तम-स्पर्श-रहित रूपी द्रव्य को तमः या अन्धकारादि शब्दों से अभिहित किया जाता है । वह केवल नेत्र इन्द्रिय से गृहीत होता है, आलोकाभाव के द्वारा कृष्णरूप की अभिव्यक्ति होती है । कलाय (मटर के फूल की नीलिमा से समन्वित नितान्त कमनीय और नेत्रों को लुभानेवाले कृष्ण द्रव्य का आगमों ने 'तमः' नाम रखा है । अन्धतमसादिरूप भी वही है ।।८।।
तार्किकगण जो तम को आलोकाभाव रूप कहते हैं, वह संगत नहीं, क्योंकि अन्धकार में रूपादि गुण, चलनादि कर्म पाया जाता है, 'अस्ति'-इस प्रकार भावरूप में उसका प्रतिभास (भान) होता है, उसके ग्रहण में किसी प्रतियोगी वस्तु के स्मरण की अपेक्षा नहीं होती, अतः वह निश्चित रूप से भाव वस्तु है । (अभाव में न कोई गुण होता है और न कर्म, अस्तित्वेन प्रतीयमान न होकर 'नास्ति'-इन रूप में ही अभाव ज्ञान में नियमत: अपेक्षित होता है, किन्तु तम का स्वभाव ठीक उससे विपरीत है, अत: उसे भावरूप ही मानना होगा) ।।९।। यह जो कहा जाता है कि, नीलादि रूपों
क्त द्रव्य में नियमत: स्पर्श देखा जाता है. अत: स्पर्श रूपादि का व्यापक है. अन्धकार में स्पर्शरूप व्यापक गण के अभाव से नीलादिरूप व्याप्य पदार्थ की भी निवृत्ति माननी होगी । वह कहना संगत नहीं, क्योंकि सभी स्पर्शवान् पदार्थों में रूपवत्त्व नहीं देखा जाता, अन्यथा वायु में भी रूपाभाव के कारण स्पर्श का भी अभाव मानना पडेगा ।।१०-११ ।। वायु में भी यदि स्पर्शवत्ता की स्पष्ट प्रतीति होती है, तब अन्धकार में भी स्पष्ट रूपवत्ता का भान होता है, फलत: न वायुगत स्पर्श का अपलाप किया जा सकता है और न अन्धकारगत रूप का।
प्रभाकर गरु का जो कहना है कि, आलोक का दर्शन न होने पर विषय-रहित केवल आत्मा का ही ज्ञान में भान होता है, सामान्यत: नील द्रव्य का स्मरण हो जाता है । स्मरणगत स्मरणत्व धर्म का प्रमोष हो जाता है । दोनों ज्ञानों का भेद-ग्रह न होने के कारण ‘तमो नीलम्'-ऐसा व्यवहार मात्र होने लग जाता है, वस्तुत: न तो कोई अन्धकार तत्त्व होता है और न उसमें नीलिमा ।
गरुवर का वह कहना अत्यन्त उपहासास्पद है. क्योंकि आत्मविषयक प्रत्यक्ष और नैल्यविषयक स्मरण-इन दोनों ज्ञानों का यदि स्वरूपतः और विषयतः भेद गृहीत नहीं होता, तब 'इदं नीलम्'-ऐसा व्यवहार न होकर 'अहं नील:'-इस प्रकार का व्यवहार प्रसक्त होता है । (श्री चिदानन्द पण्डित ने भी गुरु-मत का स्पष्टीकरण करते हुए यही आपत्ति दी है"न च नीलं तमः इति बुद्धिर्भमः, निरधिष्ठानभ्रमानुपपत्तेः । न च वेत्तृतया प्रकाशमानमात्मस्वरूपमन्यद्वा किञ्चिदधिष्ठानम्, आत्मोपलम्भस्य नैल्यस्मृत्या भेदाग्रहेऽहं नीलमिति व्यवहारप्रसङ्गात्" (नीति० पृ० ८६) । फलतः 'नीलं तमश्चलति'-यह प्रमात्मक बोध है, क्योंकि किसी भी देश या काल में अबाधित प्रतीति को भ्रम नहीं माना जाता ।
शङ्का-अन्धकार का ग्रहण यदि चक्षु के द्वारा माना जाता है, तब चक्षु का उन्मीलन होने (खुलने) पर ही घटादि के समान अन्धकार का प्रत्यक्ष होना चाहिए, चक्षु के बन्द होने पर नहीं, किन्तु आँखे बन्द करने पर जो अन्दर अँधेरा दिखता है, नेत्र-हीन जन्मान्ध को भी जो 'नीलं तमः' -ऐसा भान होता है, वह कैसे होगा ?
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