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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्)
६२१/१२४४ समाधान-सनेत्र व्यक्ति जो आँखे बन्द करके अन्दर बन्द पलकों की छाया देखता है, उसमें ही तमो व्यवहार हो जाता है । अत्यन्त समीप से दिखने के कारण उस छाया में महत्त्व-व्यवहार भी हो जाता है-'महदेतत्तमः'। बन्द नेत्र अपनी जिन पलकों की छाया को देखता है, उन पलकों को क्यों नहीं देखता ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, छाया या अन्धकार से अतिरिक्त पदार्थों के ग्रहण में चक्षु को आलोक की सहायता अपेक्षित होती है, किन्तु पक्ष्मपटलों के बन्द होने पर आलोक की सहायता नहीं मिल पाती, अत: नेत्र पक्ष्म-पटल का ग्रहण नहीं करता और नेत्र खुलन पर पक्ष्म-पटल दृष्टि की सीध में नहीं रहते, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं होता।
जन्मान्ध व्यक्तियों को अन्धकार या छाया का ग्रहण नहीं होता । वे लोग जो 'तमसीव प्रविष्टोऽहम्'-ऐसा व्यवहार करते हैं, वह तो दूसरे व्यक्ति के मुख से सुन-सुनाकर वैसे ही कर देते है, जैसे कि लोग कह दिया करते हैं कि 'अमृतमिव पीत तत् तोयम्' । आज तक स्वर्गस्थ अमृत का पान किसी ने नहीं किया, किन्तु प्रवाद-परम्परा के आधार पर प्रवृत्त इन व्यवहारो के समान ही अन्धों का उक्त व्यवहार भी है (श्री चिदानन्द पण्डित भी यह सब कछ पहले ही कह चुके हैं"चक्षुष आलोकापेक्षत्वमालोकतमसोरन्यत्रैव । एवं च पटलपिहितलोचनस्य तत्तदावरणद्रव्यच्छायां चक्षुर्गृह्णातीति न नीलबुद्धेरनवक्तृप्तिः । तस्य चात्यन्तासन्नस्य ग्रहणान्महत्त्वभ्रमोऽप्युपपन्नः । चक्षुषः प्रसरद्रश्मित्वेन ग्राहकत्वमिति नियमस्तु गोलकबहिःष्ठवस्तुग्रहे एवेति । पक्ष्मणोरग्रहणन्तु पिधानवेलायामालोकाभावादन्यदाऽऽर्जवस्थित्यभावात् । अन्धानां पुनीलबुद्धिरेवासिद्धा ।" 'तमसीव प्रविष्टोऽहम्'-इत्यादिवाक्यमदृष्टानामपि यथा वाक्यान्तरश्रवणपूर्वकम् 'अमृतमिव पाथः पीतम्'-इत्यादि, तथेति मन्तव्यम्" (नीति० पृ० ८९-९०) ।
"तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित" (ऋ० १०/१२७/७) यह श्रुति भी लोक-प्रसिद्ध नील अन्धकार का अनुवाद कर रही है। अतः अन्धकार के विषय में यह अनुमान पर्यवसित होता है-'तमः द्रव्यान्तरम्, नीलात्मकत्वाद् ।' 'नीलोत्पलगत नीलिम गुण के समान अन्धकार भी पृथिवी का गुण है'-ऐसा भी जो मानरत्नावलीकारादि कतिपय भट्टमतानुयायी आचार्यों ने कहा है, वह भी हमें मान्य है । अतः अन्धकार द्रव्य है अथवा गुण (चिदानन्द पण्डित भी कहते हैं-"यद्वा पृथिव्या एव तत्र-तत्र सूक्ष्मरूपेणावस्थिताया विशिष्टालोकावगमोद्भूतकृष्णरूपं तमः । तदयं तात्पर्यार्थ:-तमो द्रव्यगुणयोरेकां विधामनुभवति, न पुनर्विधान्तरम्" (नीति० पृ० ९०) । अन्धकार को गुणरूप मानने पर भाट्टाभिमत द्रव्यों की संख्या दस ही रह जाती है, ग्यारह नहीं । __ पृथिवी, जल, तेज, वायु और अन्धकार-ये पाँच अवयवी द्रव्य हैं, इनके अवयव होते हैं-परमाणु । बौद्धगण जो अवयव से भिन्न अवयवी द्रव्य का, निषेध करते हैं, जैसा कि प्रमाणवार्तिक की व्याख्या में श्री प्रज्ञाकर कहते हैं"नान्योऽवयव्यवयवेभ्यः, तुलानतिविशेषाग्रहणात्" (प्र० वा० पृ० ५५३) । वह बौद्धों का कहना असंगत है, क्योंकि 'महान् एको घट:'-इत्यादि अबाधित प्रत्यक्ष प्रमाणों के बल पर अवयवों से भिन्न घटादि अवयवी सिद्ध होता है । (चिदानन्द पण्डित भी कहते हैं-"अवयवी द्रव्यस्य महानेको घट इति प्रत्यक्षेण प्रतिभासनात्" (नीति० पृ० ८३)। बौद्धों के प्रायः सभी आक्षेपों का परिहार करते हुए जयन्तभट्ट ने (न्या० मं० पृ० ५४९ पर) कहा है- दृढेन चेत् प्रमाणेन बाधारहितात्मना । गृहीत एवावयवी किमेभिर्बालबल्गितैः ।।
तार्किक मत-वैशेषिकगण हम लोगों के अनुमेय और योगियों के प्रत्यक्षभूत पृथिव्यादि के नितान्त सूक्ष्म निरवयव कणों को परमाणु कहा करते हैं । सृष्टि के आरम्भ में उन्हीं परमाणुओ से परमेश्वर द्व्यणुकादि महाब्रह्माण्ड-पर्यन्त विश्व की वैसे ही रचना करता है, जैसे कुलाल घटादि की । जैसे कोई कवि अपने काव्य की रचना करता है, वैस ही ईश्वर सकल वेदों का निर्माण करता है और प्रलय काल में पृथिवी, जल, तेज और वायु-इन चार प्रकार के अवयवी द्रव्यों का
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