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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६
समाधान : 'यद्यग्निः कारणं न स्यात्, तर्हि धूमस्य कारणान्तरानुपलम्भेन अकरणत्वमेव प्रसजेत'-ऐसे तर्क का प्रयोग हो जाने पर सभी समस्याएँ सुलझ जाती हैं । सशक्त तर्क के द्वारा व्यभिचार-शङ्का के सर्वथा निवृत्त हो जाने पर उपाध्यन्तर की शङ्का का नाम तक नहीं लिया जा सकता । अतः चार्वाक का 'दृश्य उपाधि की शङ्का के निवृत्त हो जाने पर अदृश्य उपाधि की शङ्का दूर नहीं हो सकती'-ऐसा दुर्वाद भी निरस्त हो जाता है । तों के द्वारा उपाधि की शङ्का बिल्कुल मिटा दी जाती है, उपाधि चाहे प्रमाण-योग्य हो या प्रमाणायोग्य । उपाधि यदि अयोग्य है, तब उस की शङ्का ही नहीं उठ सकती और उपाधि यदि योग्य है, तब वह दृश्य ही होगी । यदि दृश्य नहीं, अनुमेय है, तब उस के लिङ्ग का भान होना चाहिए । (उपाधि-विधूनन के पश्चात् कोई भी शङ्का नहीं हो सकती... ऐसा तार्किकरक्षाकार ने भी (ता० र० पृ० १९८ पर) बडे ऊहापोह से कहा है । ___तर्क सभी प्रमाणों के अनुग्राहक होते हैं, अतः जो यह कहा जाता है कि 'सभी अनुमानों में तर्कप्रकर का प्रयोग तब तक करते रहना चाहिए, जब तक व्याघात दोष न लग जाय ।' वह कहना सङ्गत नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष और शब्दादि सभी प्रमाण तर्क की सहायता के बिना जीवित नहीं रह सकते । जैसे कि प्रत्यक्ष प्रमाण में तर्क इस प्रकार है-'अयं घटः'-यह प्रत्यक्ष प्रमाण बौद्ध-कथित परमाणु-पुञ्ज-विषयकत्व के निवर्तक तर्क से अनुगृहीत होकर ही घटरूप अवयवी को सिद्ध कर सकता है । वहाँ पर 'यदि उक्तप्रत्यक्षं परमाणुपुञ्जविषयकं स्यात्, तर्हि एकत्वेन महत्त्वेन च विषयावभासो न स्यात्'-ऐसा तर्क विवक्षित है । उसी प्रकार ‘अयं गौः'-यह प्रत्यक्ष 'यद्यत्यन्तभिन्न विषयकं स्यात्, तर्हि इदंगोत्वे इति प्रतीतिः स्यात्'-इस प्रकार के तर्क की सहायता से ही अभेद का भी ग्राहक होता है । (बौद्धगण अवयव-समूह से अतिरिक्त अवयवी नहीं मानते, जैसा कि श्री प्रज्ञाकर कहते हैं-"अवयवसमाहारमात्रमवयवी नापरस्तस्मानान्येऽवयवाः" (प्र.वा.पृ. ५५४) । तार्किकादि उनके मत का निराकरण कर प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा अनेक अवयवों से भिन्न एक अवयवी सिद्ध किया करते हैं)।
शब्द प्रमाण का भी ‘अध्ययनविधिरेव यदि स्वर्गफलक: स्यात्, तर्हि दृष्टार्थत्वे सम्भवति अदृष्टग्रहणाद् गौरवं स्यात्'-इस तर्क की सहायता से उक्त विधि वाक्य में अर्थ-ज्ञानरूप फल की बोधकता सिद्ध करता है । (श्री पार्थसारथि मिश्रने भी अध्ययन-विधि की अर्थज्ञानार्थता में वैसा ही तर्क प्रस्तुत किया है-"शब्दश्चेदध्यापनौपयिकतया विदध्यात् नार्थज्ञानार्थता सिध्येत्” (शा.दी.पृ. १०) । 'यदि अर्थज्ञानफलक: स्यात् तर्हि विधिवैयर्थ्यं स्यात्'-इस प्रकार के प्रतिकूल तर्क का निराकरण आचार्यों ने किया है, जैसे- "उपनीयं तु य: शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते ।।" (मनु० २/१४०) (जो ब्राह्मण अपने शिष्य का उपनयन संस्कार करके उसे कल्प (यज्ञप्रक्रिया के बोधक ग्रन्थ) और रहस्य (उपनिषत्) ग्रन्थों के सहित वेद का सविधि अध्यापन करता है, उस ब्राह्मण को आचार्य कहते हैं) । 'उक्तं स्मृतिवाक्यं यदि अध्यापनविधिः स्यात्, तर्हि यो द्विजः तमाचार्यं प्रचक्षते इत्यंशेनैकवाक्यता न स्यात्' - इस तर्क की सहायता से शब्द प्रमाण उक्त स्मृति वाक्य में आचार्यलक्षण-बोधकत्व सिद्ध करता है । (पार्थसारथि मिश्र ने उक्त प्रतिकूल तर्क का परिहार इस प्रकार किया है – “दृष्टप्रयोजनाभावे ह्यदृष्टं परिकल्प्यते । दृष्टमेव त्विह ज्ञानं विधेश्च नियमार्थता ।। तत्सिद्धं नियमार्थत्वान्नानर्थक्यं विधेर्भवेत् । तेन दृष्टार्थतालाभादर्थज्ञानार्थता स्थिता ।। (न्या० र० मा० पृ० २०-२१) उसी प्रकार “अक्ताः शर्करा उपदधाति" (तैब्रा० ३/१२/५) यहाँ पर 'यदि घृतेनाञ्जनं न स्यात्, तर्हि "तेजो वै घृतम्' (तैब्रा० ३/१२/५) इति वाक्यशेषो विरुध्येत'-इस तर्क के द्वारा यह निश्चित हो जाता है कि, उक्त (अक्ताः शर्करा उपदधाति) वाक्य का तात्पर्य घृताञ्जन में है । (कतिपय चयन यागों में सुवर्ण की ईंटों से आहवनीयादि अग्नियों के लिए स्थण्डिल (चबूतरा) बनाया जाता है. सवर्ण के दर्लभ होने पर छोटे कंकडों को चिकना कर चुनना विहित है-"अक्ताः शर्करा उपदधाति ।" यहाँ सन्देह का निवर्तक सूत्र है-"सन्दिग्धेषु वाक्यशेषात्"
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