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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ ततो व्यावर्तते चेति सम्भवति । पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वादित्यत्राप्येकदा शब्दाकाशयोरन्यतरत्वादित्यर्थोऽन्यदा शब्दघटयोरन्यतरत्वादित्यर्थः, ततश्च शब्दमात्रमत्रैकं नार्थ इति न किञ्चिदेतत्" (ता० र० पृ० २२३) । अर्थात् शब्दगत नित्यत्व और अनित्यत्व-इन दोनों पक्षों में प्रयुक्त पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात्'-इस शब्द का ही साम्य है, अर्थ का नहीं, (क्योंकि दोनों साध्यों में सपक्ष एक ही नहीं, अपितु अनित्यत्व का सपक्ष घट और नित्यत्व का आकाश, अतः शब्दघटान्यतरत्व और शब्दाकाशान्यतरत्व-दोनों एक क्योंकर होंगे ? शब्दघटान्यतरत्व हेतु विपक्षभूत आकाश से व्यावृत्त है किन्तु शब्दाकाशान्यतरत्व आकाश में वृत्ति । इसी प्रकार शब्दाकाशान्यतरत्व अपने विपक्षभूत घट से व्यावृत्त
और शब्दघटान्यतरत्व घट में वृत्ति, फलतः दोनों पक्षों में एक त्रैरुप्य सुलभ नहीं) । अतः नित्यत्व और अनित्यत्व रूप दो विरुद्ध धर्मों की व्याप्ति एक (पक्षसपक्षान्यतरत्व) हेतु में सम्भव नहीं है।
शङ्का-यदि प्रकरणसम हेत्वाभास में विरुद्धार्थ-साधकता नहीं है, तब आप मीमांसक भी विरुद्धाव्यभिचारी नाम का हेत्वाभास मानकर उसे विरुद्धार्थ का अव्यभिचारी (व्याप्य या साधक) कैसे माना करते हैं ? __ समाधान-विरुद्धाव्यभिचारी में भी साक्षात् विरुद्धार्थ (साध्य का विपर्यय) सिद्ध नहीं किया जाता, अपितु अर्थात् विरुद्धार्थ की साधकता वैसे ही मानी जाती है, जैसे आप (नैयायिक) क्षित्यादि में सकर्तृकत्व इस उद्देश्य से सिद्ध करते हैं कि क्षित्यादि में ईश्वरकर्तृकत्व पर्यवसित हो जाय, अतः हम वही अर्थात् विरुद्धार्थता का निरास आप के कथित प्रकरणसम में कर रहे हैं कि उसे हमारी परिभाषा में विरुद्धाव्यभिचारी भी आप नहीं कह सकते, जैसा कि (न्या०भू०पू० ३१९ पर) आपने कहा है । आप (भासर्वज्ञ) शब्दरूप पक्षे में जो नित्यत्व और अनित्यत्व-दो विरुद्ध धर्मों की सिद्धि एक ही 'पक्षसपक्षान्यतरत्व' हेतु के द्वारा कर रहे हैं, वह आपका उद्यम अनधिकृताधिकार और उपहासास्पद है ।
भवांस्त्वनित्यनित्यत्वे साक्षादेव विरोधिनी । एकेन साधयन्नद्य हास्यतामेव यास्यति ।।७५ ।। ननु नो पक्षदोषानेवानुमन्यामहे वयम् । पक्षदृष्टान्तदोषाणां हेत्वाभासेषु योजनात् ।।७६।। पक्षः खल्वाश्रयो हेतोर्न च निश्चितधर्मवान् । पक्षत्वं भजते तस्मादाश्रयासिद्धिरेव सा ।।७७।। तथैव यदि दोषः स्यादप्रसिद्धविशेषणः । तदापि पक्षतानाशादाश्रयासिद्धिरुच्यताम् ।।७८ ।। किं पक्षदोषैः कथितैरिदानीं दृष्टान्तदोषा अपि वक्ष्यमाणाः ।
___ अन्तर्गता एव हि हेतुदोषे न हेतुदोषादरोऽस्ति दोषः ।।७९।। तदेवं सर्वदोषेषु हेत्वाभासप्रवेशिषु । निःसहायः कथं तिष्ठेत्स बाधितविशेषणः ।।८।। आभाससङ्करे तावत्पुरः स्फुरितदूषणम् । उद्भाव्यमिति सर्वेषां निर्विवादं हि वादिनाम् ।।८१।। ततश्च पक्षवचने दोषः कोऽपि चकास्ति चेत् । पक्षस्यैव स वक्तव्यः किं न्यायं नानुमन्यसे ।।८।। पक्षदुष्टत्वमाश्रित्यैवोक्ता सिद्धविशेषणे । त्वयापि ह्याश्रयासिद्धिः किं पुरोभावि तत्र ते ।।८३।। एवं साध्यस्याप्रसिद्धिस्तथा बाधितसाध्यता । पक्षोक्तावेव निर्भातीत्युचिता पक्षदोषता ।।८४।। इत्थं दृष्टान्तदोषाश्च वक्ष्यमाणा: समर्थिताः । यो यत्र स्फुरितो दोषः स तस्यैवेति निर्णयात् ।।८५ ।। नावदत्पक्षदोषादीनक्षपादमुनिः पुरा । तद्भक्तिमोहिता मा मा न्यायं त्यजत तार्किकाः ।।८६।। साध्यसाधनयोर्व्याप्तिप्रतिपत्तिस्थलं हि यत् । तदुदाहरणं नाम दृष्टान्त इति चोच्यते ।।८७।। अनुमानप्रपञ्चोऽयं बहुभिर्बहुधोदितः । चिदानन्दोक्तरीत्या तु मयैवमिह दर्शितः ।।८८।।
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