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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ दिन में रूप-दर्शनाभाव की बोधिका है ऐसा मनोरथ मिश्र ने कहा है । इसी प्रकार अन्य प्रमाणों के विषय में कहा जा सकता है । स्मरणाभाव से ज्ञान का प्रकार यह है कि 'प्रातरिह मैत्रो नासीद्' - ऐसा सायं काल ज्ञान होता है । वहाँ पर प्रातः कालीन मैत्र की सायं काल में दर्शन- योग्यता न रहने के कारण 'स्मरणयोग्यत्वे सति अस्मरण को ही प्रातःकालीन मैत्राभाव का बोधक माना जाता है ।"
तार्किकगण जो अभाव को प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विषय मान कर अनुपलब्धि प्रमाण का विषय नहीं मानते, वह अयुक्त है, क्योंकि उन्हें भी सायंकाल में प्रातः कालीन अभाव का ज्ञान इन्द्रिय-जन्य सम्भव न होने के कारण अनुपलब्धि-जन्य ही मानना पडेगा । उसके स्मरणाभावरूप लिङ्ग के द्वारा प्रातः कालीन अभाव का अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि स्मरणाभावरूप लिङ्ग का ज्ञान सम्भव नहीं । यह जो तार्किकगण स्मृत्यभाव को मनोग्राह्य मानते हैं, जैसा कि श्री वरदराज कहते हैं- "स्मरणाभावश्च मानसप्रत्यक्षः " ( ता० र० पृ० १०) । वह असंगत है, क्योंकि हम (भाट्ट गण) ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं मानते, अतः ज्ञान का मानस प्रत्यक्ष भी नहीं हो सकता । प्रत्यक्षप्रतियोगिक अभाव का ही प्रत्यक्ष होता है, फलतः स्मृतिरूप ज्ञान का अभाव मन के द्वारा भी गृहीत नहीं हो सकता ।
मनः प्रत्यक्षगम्यत्वं ज्ञानानां वारयामहे । ततश्च तदभावोऽपि मनसा गृह्यते कथम् । । १६३ ।। पूर्वोक्तयोग्यतासिद्धावुपक्षीणमिहेन्द्रियम् । ग्राह्या चाभावबोधार्थं योग्यता तार्किकैरपि । । १६४ ।। घटो यदि भवेदत्र तर्हि दृश्येत भूमिवत् । इति तर्कात्मना तेऽपि योग्यतामेव गृह्णते । । १६५ ।। अस्ति चेदुपलभ्येतेत्यस्य कोऽर्थो विचार्यताम् । घटादन्योऽत्र सर्वोऽपि ज्ञानहेतुरभूदिति । । १६६ ।। संस्कारो हि स्मृती हेतुः स चाज्ञातोऽवबोधकः । अज्ञातकरणाप्येवं स्मृतिर्नाध्यक्षतां गता । । १६७।। न खल्विन्द्रियदोषः स्यादभावभ्रमकारणम् । योग्यताभ्रम एवात्र तन्कारणमितीरितम् । । १६८ ।।
शङ्का-अभाव में प्रत्यक्ष-विषयता का अनुमान किया जाता है, जैसा कि श्री उदयनाचार्य (न्या० कु० ३ / २० में) कहते है - प्रतिपत्तेरपारोक्ष्यादिन्द्रियस्यानुपक्षयात् । अज्ञातकरणत्वा भावावेशात्र चेतसः ।। (घटादि की ग्राहक इन्द्रियाँ घटाभाव के ग्रहण में उपक्षीण नहीं होती, अतः घटाभावादि की प्रतिपत्ति (प्रमा) अपरोक्ष ही होती है । अज्ञातकरणक होने के कारण भी अभाव का ज्ञान प्रत्यक्ष ही होता है, अनुपलब्धि-गम्य नहीं, क्योंकि मन की सहायता के बिना कोई ज्ञान नहीं होता और मन भावभूत इन्द्रियादि करणों का ही सहायक होता है, अभावभूत अनुपलब्धि करण का नहीं) । अभाव की प्रत्यक्षता सिद्ध करने के लिए अनुमान प्रयोग ऐसा किया जा सकता है - 'अभावः प्रत्यक्षः, अपरोक्षप्रतीतत्वाद्, घटवत्।'
समाधान-उक्त अनुमान में स्वरूपासिद्धि दोष है, क्योंकि अभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता, अभाव के अधिकरणीभूत भूतलादि का ही प्रत्यक्ष होता है, अत एव आप (तार्किकों) को भूतलवृत्ति अभाव प्रत्यक्षता का भ्रम हो जाता है । 'इन्द्रियस्यानुपक्षयात्’-ऐसा कह कर श्री उदयनाचार्यने जो अनुमान प्रयोग सूचित किया है- ' अभावज्ञानं प्रत्यक्षम्, अनुपक्षीणेन्द्रियजन्यत्वाद्, घटवत् (श्री वरदराज ने भी कहा है- " भूतले घटो नास्तीति प्रतीतिरिन्द्रियजन्या, अनन्यत्रोपक्षीणेन्द्रियव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाद्, रूपादिबुद्धिवत्" (ता० २० पृ० १०२ ) । वह अनुमान भी विशेषासिद्ध है, क्योंकि पूर्वोक्त अनुपलब्धि प्रमाण में अपेक्षित योग्यता की सिद्धि में इन्द्रियाँ उपक्षीण हो जाती हैं (श्री चिदानन्द पण्डित भी यही दोष देते हैं- " विषयतदधीनेतरकारणसाकल्यलक्षणयोग्यत्वायेन्द्रियस्यान्यथासिद्धत्वात् " (नीति० पृ० १७४) । तार्किकगण भी अभाव का प्रत्यक्ष करने के लिए उक्त योग्यता की नित्यापेक्षणीयता स्वीकार करते हैं, क्योंकि उनका 'अत्र घटो यदि भवेत्, तर्हि भूतलादिवद् दृश्येत'- इस प्रकार का प्रसञ्जन तर्क योग्यता के बिना सम्भव
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