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अथ प्रमेय विभाग:
कुमारिलवचोजालपयोधिशरदिन्दवे । शिष्यसन्तानसन्तानतरवे गुरुवे नमः ।। १ ।।
यत्कीर्तिर्न हि माति हन्त महति ब्रह्माण्डभाण्डोदरे यस्याज्ञां प्रणतैः शिरोभिरनिशं धत्ते नृपाणां गणः । सोऽयं नाटकतर्ककाव्यनिपुणः प्रज्ञातपातञ्जलो भक्तश्चक्रिणि मानवेदनृपतिर्जागर्ति पृथ्वीतटे ।। २ ।। पृथ्वीवृत्रजिता नितान्तमहितेनैतेन संचोदितैरस्माभिः कृशशेमुषीविलसितैरभ्यासहीनैरपि ।
प्राङ् नारायणसूरिणा विरचितं सन्मानमेयोदयं मोहात् पूरयितुं कृता मतिरियं सन्तः प्रसीदन्तु नः ।।३।। प्रमेयं बहुधा लोके प्राहुः प्राभाकरादयः । प्रमाणाभासविश्वासव्याकुलीभूतचेतसः ।।४।। आचार्यमतपीयूषपारावारविहारिणः । वयं तावत् प्रमेयं तु द्रव्यजातिगुणक्रियाः । अभावश्चेति पञ्चैतान् पदार्थानाद्रियामहे ।।५।।
२- प्रमेय
कुमारिल के वचोनिचयरूपी पारावार में उत्ताल तरङ्गे उठा देनेवाले शरत्कालीन चन्द्ररूप, शिष्य-शाख - प्रशाख के महात गुरुवर को नमस्कार है ।।१।।
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् )
जिसकी विशाल कीर्ति ब्रह्माण्ड के उदर में नहीं समा रही है, जिसकी आज्ञा में हाथ बाँधे सदैव नृपगण खडे रहते हैं, वह नाटक, तर्क और काव्य में निपुण पातञ्जलशास्त्राभिज्ञ विष्णु भक्त श्री मानवेद नामक सम्राट् भूमण्डल पर विराजमान है । । २ । । उसी महान् नृप की प्रेरणा से मैं पुरातन नारायण भट्ट के द्वारा प्रणीत इस अधूरे 'मानमेयोदय' ग्रन्थ को पूरा करने हो गया हूँ । मेरा इस विषय का विशेष अभ्यास नहीं, बुद्धि भी थोडी है । फिर भी अधूरे ग्रन्थ की पूर्ति का मोह हो गया है, आशा है कि मेरे इस कार्य से सत्पुरुष प्रसन्न होंगे ।। ३ ।।
लोक में प्रभाकरादि आचार्यों ने प्रमेयवर्ग का अनेक प्रकार से वर्णन किया है, मैं समझता हूँ कि, प्रभाकरादि कुछ प्रमाणाभासों पर विश्वास होने के कारण व्याकुलित होकर प्रमेयों और उनकी इयत्ता का निर्णय न कर सके किन्तु हम आचार्य कुमारिल भट्ट के मतरूपी अमृतमय महासागर में गोते लगानेवाले हैं, अतः हम (१) द्रव्य (२) जाति, (३) गुण, (४) क्रिया और (५) अभाव नाम के पाँच प्रमेयों को मान्यता देते हैं । । ४ - ५ ।। अब क्रमशः द्रव्यादि प्रमेयों का स्वरूप देखेंगे ।
(१) द्रव्य - द्रव्य-तत्त्ववेत्ता विद्वान् परिमाण और गुण की आधार वस्तु को द्रव्य कहा करते हैं । वैशेषिकगण द्रव्य का लक्षण करते हैं- “गुणाश्रयो द्रव्यम्" । जैसा कि महर्षि कणाद कहते हैं कि, "क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्” (वै० सू० १/१/१५) । वैशेषिकों का उक्त (गुणवत्त्व) लक्षण गुणों में ही अतिव्याप्त है, क्योंकि "चतुर्विंशतिरुद्दिष्टा गुणाः कणभुजा स्वयम्" -इस उक्ति के आधार पर चतुर्विंशति संख्या की आश्रयता गुणों में सिद्ध होती है, संख्या भी एक गुण है । समवाय पदार्थ की सत्ता सिद्ध नहीं होती, अतः समवायी (समवाय का आश्रय ) भी कोई नहीं हो सकता, ‘समवायिकरणं द्रव्यम्' - यह काणाद लक्षण भी निरस्त हो जाता है । यह कहा जा चुका है कि, गुणों में भी संख्यावत्ता का व्यवहार प्रमाण सिद्ध है, अतः संख्यारूप गुण की समवायिकारणता भी गुणों में अतिव्याप्त है।
शङ्का - द्रव्य का मीमांसकाभिमत परिमाणाधारत्व लक्षण भी प्रथमक्षणावच्छिन्न द्रव्य में अव्याप्त है, क्योंकि परिमाण भी गुण है और गुणों की द्रव्य के द्वितीय क्षण में उत्पत्ति मानी जाती हैं, प्रथम क्षणावच्छिन्न द्रव्य में कोई गुण नहीं रहता ।
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