Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 02
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

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Page 638
________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ६११ / १२३४ शङ्का-दर्शपूर्णमासरूप प्रकृति कर्म में अपेक्षित अग्न्यादि देवताओं की वाचक पदों के द्वारा ही उपस्थिति कराई जाती है, उसी के अनुरूप सौर्य इष्टिरूप विकृति कार्य में भी अपेक्षित सूर्य देवता की उपस्थिति कराने के लिए 'सूर्य' पद का अध्याहार आवश्यक है । समाधान - प्रकृति कर्म में जो-जो देखा गया है, उस समस्त कार्यकलाप का विकृति में अतिदेश नहीं होता, अपितु विकृति कर्म अपने प्रयोजन के लिए उपयोगी अङ्गो का ही लाभ करता है, देवता का पदबोधितत्व निष्प्रयोजन होने के कारण सौर्य इष्टि में प्राप्त नहीं होता । यदि प्रकृति के सभी पदार्थों का यथावत् अनुष्ठान विकृति में आवश्यक हो, तब दर्शपूर्णमासीय व्रीहि द्रव्य में "व्रीहीनवहन्ति" इस वाक्य से प्राप्त अवहनन भी विकृति के कृष्णल (सुवर्ण-कणों) में प्राप्त होगा, किन्तु वहाँ तुष-निवृत्तिरूप प्रयोजन न होने के कारण कृष्णलों में अवघात प्राप्त नहीं किया जाता है, वैसे ही सौर्य इष्टि में सूर्य देवता की उपस्थिति के लिये पदोपस्थापितत्व निष्प्रयोजन होने से प्रसक्त नहीं होता । फलतः श्रुतार्थापत्ति द्वारा ही पदों का अध्याहार हो सकता 1 अथोपलम्भयोग्यत्वे सत्यप्यनुपलम्भनम् । अभावाख्यं प्रमाणं स्यादभावस्यावबोधकम् ।।१५५।। विषयं तदधीनांश्च सन्निकर्षादिकान् विना । उपलम्भस्य सामग्रीसम्पत्तिः खलु योग्यता । । १५६ ॥ सा च ज्ञाततयाभावज्ञानस्य सहकारिणी । अज्ञातोऽनुपलम्भस्तु सत्तामात्रेण बोधकः । । १५७ ।। योग्यत्वावगमार्थं हि सूक्ष्मार्थाभाववेदने । सूक्ष्मबोधकनेत्रांशुसंपातार्थं प्रयत्यते ।। १५८ ।। योग्यत्वस्य च सन्देहे विपर्यासेऽथवा सति । अभावेऽपि हि सन्देहो भ्रमो वास्त्येव तद्यथा ।। १५९ ।। तमसि भ्रष्टमन्विष्यन् कराभ्यामङ्गुलीयकम् । सर्वोर्वीस्पर्शसन्देहादभावेऽप्येति संशयम् ।।१६०।। तथैव सर्वतोऽस्पर्शे मत्वा सर्वाभिमर्शनम् । सत एवाङ्गुलीयस्याप्यभावं बुध्यते भ्रमात् ।।१६१।। स्मृत्यभावं मनोग्राह्यमिच्छन्ति किल तार्किकः । तचायुक्तं वयं तावत् ज्ञानाप्रत्यक्षवादिनः । । १६२ ।। T (६) अनुपलाब्धि - अभावरूप अर्थ के बोधक अनुपलब्धि प्रमाण का लक्षण है-'उपलम्भयोग्यत्वे सत्यनुपलम्भनम् ।' यह ज्ञानाभावरूप अनुपलम्भ अभाव-प्रमा का करण होने के कारण अभाव प्रमाण कहा जाता है । यहाँ उपलम्भयोग्यता का अर्थ है-विषय और विषयसन्निकर्षादि को छोडकर विषयोपलम्भ की सामग्री सम्पत्ति । वह सामग्री - सम्पत्ति ज्ञात होकर अभाव- ज्ञान की सहायिका मानी जाती है और अज्ञात अनुपलम्भ सत्तामात्र से बोधक होता है । अर्थात् 'विषयभूत घट और घटाधीन इन्द्रिय-सन्निकर्षादि को छोडकर जो चक्षु का उन्मीलन, आलोक-संयोग और मनः प्रणिधानादि घटोपलम्भ सामग्री है, वह सब विद्यमान है' ऐसा ज्ञान हो जाने पर उस ज्ञान से युक्त घटानुपलम्भ घटाभाव का बोधक होता है- ऐसी ही व्यवस्था सर्वत्र समझ लेनी चाहिए । उक्त योग्यता का ज्ञान करने के लिए सूक्ष्म पदार्थों के अभाव का ज्ञान आवश्यक है, अतः सूक्ष्मार्थ- बोधक नेत्र - रश्मियों के संयोगार्थ प्रयत्न विशेष भी अपेक्षित होता है । कथित योग्यता का सन्देह अथवा विपर्यय हो जाने पर अभाव के विषय में भी सन्देह या भ्रम (विपर्यय) हो जाता है, जैसे कि, अँधेरे में खोई हुई अँगूठी के सभी भूतल पर हाथ फेर लेने पर भी योग्यता में सन्देह रह जाने के कारण अभाव का सन्देह हो जाता है और सभी भूतल का स्पर्श न होने पर भी सर्वाभिमर्शन का अभिमान हो जाने पर विद्यमान अँगूठी का भी भ्रमतः अभाव समझ लिया जाता है । अतः योग्यता का निश्चय अभावज्ञान में आवश्यक होता है । अनुपलम्भ दो प्रकार का होता है - (१) प्रमाणाभाव और (२) स्मरणाभाव । इन में प्रत्यक्ष प्रमाण के अभावरूप अनुपलम्भ से घटादि के अभाव का ज्ञान ऊपर कहा गया । उसी प्रकार अनुमान-गम्य पदार्थों के अभाव का ग्रहण करने के लिए योग्यानुमानादि को बोधक समझ लेना चाहिए, जैसे कि रूप-दर्शन-बोधक चेष्टाङ्गिक अनुमान की अनुत्पत्ति उलूक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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