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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
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तस्माद्यो विद्यमानस्य गृहाभावोऽवगम्यते । स हेतुः स बहिर्भावं नागृहीत्वा च गृह्यते ।।१४३ ।। तार्किकध्वंसनोपायमेवंरुपमजानता । गुरुणा तु प्रलपितो जीवनस्यात्र संशयः । । १४४ ।। जीवनं किल विज्ञातं वेश्मवर्तितया पुरा । तस्माज्जीवनसन्देहो भवेद्वेश्मन्यदर्शनात् ।।१४५।। सन्दिग्धं जीवनं त्वेतद्बहिर्भावस्य बोधकम् । अर्थापत्तेः प्रभावोऽयं यत्सन्दिग्धोऽपि बोधयेत् ।।१४६।। एवं जीवनसन्देहे स्यात्सन्दिग्धविशेषणः । हेतुरित्यनुमानत्वनिरासः सुकरोऽत्र नः ।।१४७।। जीवनं यदि सन्दिग्धं गृहाभावनिरीक्षणात् । तर्हि तन्निर्णयः कार्य आप्तवाक्यादिना पुनः ।। १४८ ।। तत्प्रियाकण्ठसूत्रादिचिह्नसंदर्शनेन वा । न च तत्प्रार्थ्यते किंचित्तस्मान्नास्त्येव संशयः ।। १४९।। किंच नास्ति बहिर्भावग्रहः सन्दिग्धजीवनात् । मृतत्वस्यापि शङ्कायां बहिरस्तीति धीः कथम् । । १५० ।। यस्माज्जीवति वा नो वा तस्मात्तिष्ठत्यसौ बहिः । इति कल्पयितुं शक्तः कोऽपरो गुरुणा विना । । १५१ । । अर्थापत्तिप्रभावेण सर्वं संभवतीति चेत् । हन्तैवं सर्ववस्तूनामदृष्ट्या नाशसंशये । । १५२ ।। अन्यत्रास्तीति निश्चित्य कृतार्थो क्रियतां मनः । तस्मात्सन्दिग्धता तावन्नैवार्थापत्तिकारणम् ।।१५३ ।। यत्र त्वपरिपूर्णस्य वाक्यस्यान्वयसिद्धये । शब्दोऽध्याह्रियते तत्र श्रुतार्थापत्तिरिष्यते ।। १५४ ।।
देवदत्त की बहिर्देश में सत्ता सिद्ध करने के लिए जो अनुमान प्रयोग किया गया- 'देवदत्तो बहिरस्ति, जीवितत्वे सति गृहेऽभावात् ।' वह स्वरूपासिद्ध है, क्योंकि देशविशेष का बिना उल्लेख किए निर्विशेष जीवनमात्र का निरूपण ही नहीं किया जा सकता । बहिर्भाव का ग्रहण करने से पहले जीवन और गृहाभाव के समुच्चय (जीवितत्वे सति गृहाभाव ) की प्रतीति नहीं हो सकती, अतः जीवन - विशिष्ट गृहाभावरूप लिङ्ग का ज्ञान न हो सकने के कारण प्रकृत हेतु स्वरूपासिद्ध नाम का हेत्वाभास है, जैसा कि बृहट्टीका में कहा गया है- तस्माद् यो विद्यमानस्य गृहाभावोऽवगम्यते । स हेतुः स बहिर्भावं नागृहीत्वा च गृह्यते ॥
('देवदत्तो बहिरस्ति, गृहाभावात्'- यहाँ पर गृहाभावरूप हेतु का ज्ञान तभी होगा, जब कि बहिर्भाव का ज्ञान हो जाय, अन्यथा यदि देवदत्त कहीं नहीं है, मर गया, तब अभाव मात्र कहा जायेगा, गृहाभाव नहीं) । कथित युक्तियों से यह सिद्ध हो गया कि अर्थापत्ति एक पृथक् प्रमाण है ।
तार्किक मत- निराकरण में प्राभाकर तर्क-तार्किक मत के निरास में प्रदर्शित रीति का ज्ञान न होने के कारण श्री प्रभाकर ने तार्किकोक्त अनुमान (देवदत्तो बहिर्देशसंयोगी, गृहाभावे सति विद्यमानत्वात्) का निराकरण करने के लिए कहा है कि, जीवन (विद्यमानत्वरूप) हेतु सन्दिग्ध है, क्योंकि देवदत्त अधिकतर गृह में ही रहता था किन्तु अब वहाँ नहीं दिखाई देता, अतः उसका जीवन सन्दिग्ध है । सन्दिग्ध जीवन बहिर्भाव का अनुमापक नहीं हो सकता किन्तु उसका आक्षेपक हो सकता है, क्योंकि अर्थापत्ति का प्रभाव ही ऐसा है कि सन्दिग्ध पदार्थ भी उपपादक का कल्पक हो जाता है। जीवन का सन्देह होने पर उक्त अनुमान का जीवितत्वे सति गृहाभावरूप हेतु सन्दिग्धविशेषणक हो जाता है, अतः अर्थापत्ति को अनुमान से गतार्थ नहीं किया जा सकता । (श्री शालिकनाथ मिश्र कहते हैं- "नन्वेतद्गृहाभावदर्शनाज्जीवतो बहिर्भावकल्पनाऽनुमानमेव-देवदत्तो बहिर्देशसंयोगी, गृहाभावे सति विद्यमानत्वात् । अत्रोच्यते-न तावद् विद्यमानत्वं लिङ्गं भवति, स्वयं सन्देहास्पदीभूतत्वात् । देवदत्तस्य च विद्यमानता गृहसम्बद्धैवाव तदभावप्रतीतौ बहिर्देशसम्बन्धे चानवगते सन्दिह्यते । यथा अनुमानस्य निश्चितं लिङ्गं जनकम्, तथाऽर्थापत्तेः सन्देहग्रस्तमिति नास्ति विरोधः (प्र०पं० २७३ - २७६ ) ।
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