Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 02
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

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Page 634
________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ६०७/१२३० (५) अर्थापत्ति-पीनत्वादि उपपाद्य पदार्थ की अन्यथानुपपत्ति के आधार पर जो उसके उपपादक (रात्रि-भोजन) की कल्पना की जाती है, उसे ही भाष्यादि में अर्थापत्ति प्रमाण कहा गया है-"दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यर्थकल्पना" (शा०भा०पृ० ३७) ।।२७ ।। यहाँ दृष्ट और श्रुत का तात्पर्य प्रत्यक्षादि छः प्रमाणों से अवगत पदार्थ में है, जैसा कि, वार्तिककार (श्लो॰वा०पृ० ३५० पर) कहते हैं- प्रमाणषटकविज्ञातो यत्रार्थो नान्यथा भवेत् । अदृष्टं कल्पयेदन्यं साऽर्थापत्तिरुदाहता ।। __ (दो विरोधी प्रमाणों की विषय-व्यवस्था करने के लिए अर्थापत्ति स्वीकरणीय है-इस सिद्धान्त का निराकरण करते हुए जो श्री उदयनाचार्य (न्या०कु० ३/१९ में) कहते हैं- अनियम्यस्य नायुक्ति नियन्तोपपादकः । न मानयोर्विरोधोऽस्ति प्रसिद्धे वाप्यसौ समः ॥ अर्थात् 'अनियम्य (व्याप्ति-रहित पदार्थ) की अयुक्ति (अनुपपत्ति) नहीं होती । दो प्रमाणों का विरोध कभी नहीं हो सकता, यदि माना जाता है, तब प्रसिद्ध (सर्वमत-सिद्ध) अनुमान प्रमाण में भी अन्यथानुपपत्ति माननी होगी ।' इसी प्रकार श्री वरदराज ने भी जो कहा है-"प्रमाणद्वयविरोध एवानुपपत्तिरिति चेत्, मैवं व्याहतं भाषिष्ठाः प्रमाणयोः सतो विरोध एवानुपपन्नः" (ता० र० पृ० ९८) । उन विरोधोद्भावनों को ध्यान में रखकर कहा जाता है कि) प्रमाण-द्वयविरोध को विरोधियों ने असङ्गत ठहराया है, अतः अर्थापत्ति का लक्षण उन्हें ऐसा सिखाना चाहिए कि साधारण प्रमाणों का असाधारण प्रमाण से विरोध उपस्थित होने पर अविरुद्धांश में तात्पर्यावधारण अर्थापत्ति प्रमाण है । जैसे-जीवन-बोधक (ज्योतिषी के वाक्यरूप शब्द के आधार पर प्रवृत्त अनुमान) प्रमाण का गृहाभाव-बोधक अनुपलब्धि प्रमाण से विरोध होने पर करणीभूत विरोध के द्वारा अर्थापत्तिरूपबहिर्भाव की कल्पना की जाती है । अर्थात् गणितरूप आगम प्रमाण के आधार पर प्रवृत्त अनुमान प्रमाण के द्वारा जो सामान्यतः अवगत होता है कि 'देवगत्तो गृहे वा बहिर्वा क्वचिज्जीवति'। उसका 'गृहे नास्ति'-इस अनुपलब्धि से विरोध होने पर अविरोध-स्थापन करने के लिए ऐसी कल्पना की जाती है-'देवदत्तो बहिरस्ति ।' इस प्रकार प्रमाणद्वयविरोधरूप करण से अर्थापत्ति ज्ञान उत्पन्न होता है । शङ्का-कथित अर्थापत्ति का तार्किकगण जो अनुमान में अन्तर्भाव कर देते हैं । उनका कहना है कि, दो विरोधी प्रमाणों का सामञ्जस्य करने के लिए अर्थापत्ति का मानना सम्भव नहीं, क्योंकि "न मानयोविरोधोऽस्ति प्रसिद्धे वाप्यसौ समः" (न्या०क०३/१९) । अर्थात एक ही विषय में प्रवत्ति दो प्रमाणों का विरोध सम्भव नहीं. क्योंकि जैसे रजतविषयक 'इदं रजतम्' और 'नेदं रजतम्'-इन दोनों विरोधी ज्ञानों में एक अप्रमाण होता है, वैसे ही समान विषयक दो विरोधी ज्ञानों में से एक का अप्रमाण होना अनिवार्य है, दोनों प्रमाण नहीं हो सकते । कहीं पर जो दो प्रमाणों का विरोध देखा जाता है, वह सम्भावना मात्र है, क्योंकि गृहाभाव विषयक प्रमाण के द्वारा सन्दिग्ध गृह-सत्त्व का ही बाध होता है, बहिःसत्त्व का नहीं। और जीवितत्वविषयक प्रमाण का देश-सामान्यसम्बन्ध ही विषय होता है, गह-सत्त्व नहीं, अतः उक्त दोनों प्रमाणों का कोई विरोध ही नहीं, फलतः विरोधकरणक अर्थापत्ति का प्रतिपादन नहीं हो सकता । ___ यदि कथमपि उक्त दोनों प्रमाणों का विरोध माना जाता है, तब ‘पर्वतो वह्निमान्, धूमवत्त्वात्'-इत्यादि प्रसिद्ध अनुमानों को भी अर्थापत्ति ही मानना पडेगा । क्योंकि, 'यत्र धूमस्तत्राग्निः'-इस प्रकार की व्याप्ति के ग्राहक प्रमाण के द्वारा पर्वत में भी अग्नि सिद्ध होती है अथवा दृश्यमान धूम अपने कारणीभूत अग्नि का आक्षेपक हो सकता है । इन दोनों मार्गो से अवगत अग्नि पर्वत के शिखर पर अनुपलब्धिबाधित है, अतः अधोदेश में अग्नि की कल्पना तो अर्थापत्ति ही है। अतः अर्थापत्ति का अनुमान में अन्तर्भाव मान कर देवदत्त की बहिर्देशसत्ता का अनुमान कर लेना चाहिए-“देवदत्तो बहिरस्ति, जीवित्वे सति गृहेऽसत्त्वात् । अतः अर्थापत्तिरूप पञ्चम प्रमाण मानना व्यर्थ है ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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