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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
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वैशेषिकादि का भी निरास उसी प्रकार कर देना चाहिए, क्योंकि वे लोग भी 'निर्दोषवाक्यत्वादिरूप' लिङ्ग के द्वारा ही वाक्यार्थ का अनुमान किया करते हैं, निर्दोषत्व का अर्थ है-भ्रान्त्यादिराहित्य । उसका ज्ञान तभी हो सकेगा, जब कि पहले वाक्यार्थ का ज्ञान हो जाय, फलतः यहाँ पर भी पूर्वोक्त रीति से हेत्वसिद्धि ही है ।
लौकिक और वैदिक-दोनों प्रकार का शाब्द प्रमाण सिद्ध किया गया, उसमें लौकिक वचन जब दुष्ट या अनाप्त पुरुष के द्वारा प्रणीत होता है, तब वाक्यार्थ-बोध व्यभिचरित हो जाता है, किन्तु अपौरूषेय वेद-वचन के साथ पुरुष का
भी संस्पर्श नहीं होता, अतः वहाँ कोई भी कलङ्क (दोष) सम्भावित नहीं, व्यभिचार-शङ्का तो हो ही कैसे सकती है? विधि, मन्त्र, अर्थवाद के भेद तथा उपदेश और अतिदेश के भेद से वैदिक वचन बहुविध हैं, जिनका निरूपण इस संक्षिप्त ग्रन्थ में नहीं किया जा सकता । (समस्त साङ्गवेद विधि, मन्त्र, नामधेय, निषेध एवं अर्थवाद-इन पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है । विधि वाक्य चार प्रकार के होते हैं-उत्पत्ति विधि, विनियोग विधि, अधिकार विधि और प्रयोग विधि । योगादि क्रिया और उस के द्रव्य देवतात्मक स्वरूप के बोधक “यदाग्नेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां पौर्णमास्यां चाच्युतो भवति" (तं०सं० २/६/३) इत्यादि वाक्यों को उत्पत्ति विधि, विहित कर्म के द्रव्यादि अङ्गो के विनियोजक “व्रीहिभिर्यजेत" (आप० श्री० ६/३१/१३) इत्यादि वाक्यों को विनियोग विधि, कर्म के फल और अधिकारी के बोधक “दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत"-इत्यादि वाक्यों को अधिकार विधि तथा साङ्ग कर्म के अनुष्ठान-क्रम का प्रतिपादन करनेवाले वाक्यों को प्रयोग विधि कहा जाता है । कर्म और कर्म-सम्बन्धी पदार्थों का स्मरणादि दिलाने वाले “इषे त्वा" (माध्य० सं० १/१) इत्यादि वाक्य मन्त्र कहे जाते हैं । सभी मन्त्र चार प्रकार के होते हैं-करण मन्त्र, क्रियमाणानुवादी मन्त्र, अनुमन्त्रण मन्त्र और जप मन्त्र । जिस मन्त्र का उच्चारण करने के अनन्तर कर्म किया जाता है, उसे करण मन्त्र कहते हैं, जैसे-याज्या, पुरोऽनुवाक्या आदि । कर्मानुष्ठान के साथ-साथ जो मन्त्र बोला जाता, वह क्रियमाणानुवादी मन्त्र है, जैसे “युवा सुवासा" (ऋ० सं० ३/१/३) इत्यादि । यजमान के द्वारा द्रव्यत्यागादि कर्म करने के अनन्तर बोले जानेवाले “एको मम एका तस्य योऽस्मान् द्वेष्टि" (शब्रा० १/५/५/७) इत्यादि वाक्यों को अनुमन्त्रण मन्त्र कहा जाता है । कथित मन्त्रों से अतिरिक्त जिन मन्त्रों का यजमान जप करता है, वे जप मन्त्र हैं । अग्रिहोत्रादि शब्द कर्म के नामधेय या संज्ञाएँ हैं । “नेक्षेतोद्यन्तमादित्यम्" (मनु० ४/३७) इत्यादि वाक्य निषेध वाक्य हैं । विहित कर्मों की प्रशंसा और निषिद्ध कर्मों की निन्दा करनेवाले वाक्य अर्थवाद कहे जाते हैं । किसी कर्म के प्रकरण में पठित वाक्यों को उपदेश और 'प्रकृतिवद् विकृतिः कर्त्तव्या'-इत्यादि वाक्यों को अतिदेश वाक्य कहते हैं)।
दृश्यमानार्थसादृश्यात् स्मर्यमाणार्थगोचरम् । असनिकृष्टसादृश्यज्ञानं ह्युपमितिर्मता ।।१०९।। नगरे खलु पूर्वं गां पश्यतोऽपि न भासते । तत्स्थं गवयसादृश्यं गवयस्यानिरीक्षणात् ।।११०।। कदाचित्तु वनं प्राप्य गवयं वीक्षते यदा । तदा तद्गतगोसाम्यं प्रत्यक्षेणैव गृह्यताम् ।।१११।। यत्पुनस्तावदेवास्य भाति दूरस्थिते गवि । गवयेनापि सादृश्यं तत्र किंनाम कारणम् ।।११२।। न हि पूर्वगृहीतं तद्येन स्मर्यंत सांप्रतम् । दूरस्थितत्वाचेदानी प्रत्यक्षेण न गृह्यते ।।११३।। स्पष्टं च भासते तस्मात्प्रमाणान्तरमर्थ्यते । तत्रोपमानमाचख्युः शाबराः शाङ्करा अपि ।।११४ ।। (४) उपमान-वन में दृश्यमान गवयादि पदार्थों के सादृश्य से स्मर्यमाण असन्निकृष्ट गोष्ठस्थ गोगत सादृश्य का ज्ञान उपमिति या उपमान प्रमाण कहलाता है, जैसा कि भाष्यकार कहते हैं-"उपमानमपि सादृश्यमसनिकृष्टेऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति" (शा०भा०पृ० ३७) । गवय में गोप्रतियोगिक सादृश्य (समानाकारता) को देखकर जो यह ज्ञान उत्पन्न होता है
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