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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६ समय शब्द में बोधकता शक्ति सिद्ध होती है, तथापि अधिकतर पुरुष-वचन असत्य देखे जाते हैं, अतः व्यभिचार बहुल पौरुषेय वचनों की उस शक्ति में कुण्ठा का आ जाना स्वाभाविक होता है । वह अन्यथात्व ( विपरीतार्थ - बोधकत्व) की आशङ्का तब तक निवृत्त नहीं होती, जब तक कि यह अनुमान नहीं कर लिया जाता कि 'अनेन वक्त्रा अमुमर्थमवबुध्य एव वाक्यं प्रयुक्तम् ।' जिस शब्द की शक्ति कुण्ठित हो जाती है, वह अपना कार्य (वाक्यार्थ-बोधन) में उदास (अक्षम) हो जाता है । पुरुष - वचनों का तात्पर्य भी उसकी बुद्धि के अधीन होता है, वक्ता के ज्ञान की अनुमिति के बिना तात्पर्य का अनिश्चय रह जाने के कारण भी वाक्य उदास हो जाता है, अतः वक्ता के ज्ञान का अनुमान नितान्त आवश्यक है । 'नद्यास्तीरे फलानि सन्ति' - इस वाक्य को सुनकर श्रोता सभी पदार्थों का पृथक्-पृथक् स्मरण कर अनुमान करता है- एतानि पदानि, पदार्थसंसर्गमवबुध्यैव प्रयुक्तानि आप्तप्रणीतत्वाद्, गामानयेति वाक्यवत् । ' इस प्रकार वक्ता के पदार्थ- संसर्ग - ज्ञान की अनुमिति करने में थक-थकाकर श्रोता पदार्थ-संसर्गरूप वाक्यार्थ को बलपूर्वक प्राप्त करता है, अतः यह सिद्ध हो गया कि पौरुषेय वचनों में वाक्यार्थ अनुमेय ही होता है । व्यभिचारशङ्का के निवृत्त हो जाने पर पौरुषेय शब्द भी उसी अर्थ का अनुवाद मात्र कर देता है - यह आचार्य प्रभाकर का सिद्धान्त है । (श्री शालिकनाथ मिश्र कहते हैं"लौकिकं वाक्यं नार्थे स्वयं निश्चयमुत्पादयति, लौकिकवचसामनृतभूयिष्ठत्वादर्थव्यभिचारस्य शङ्कितत्वात् । हि पुरुष एवमवधारित:- " नायमशक्तः न प्रमादी नायमविज्ञायान्वयमर्थानामन्वितार्थानि प्रयुक्ते इति, तद्वाक्यप्रयोगस्यान्वयज्ञानपूर्वकत्वादन्वयज्ञानं तावदनुमीयते ज्ञानं हि ज्ञेयाविनाभावि ज्ञेयानुमाने भवत्येव लिङ्गम् । तद्वाक्यस्यानुवादकतैव, अत एव लौकिकं वचनं न शाब्दं प्रमाणम्" (प्र० पं० पृ० २४४) ।
प्रभाकर मत का निरास - व्यभिचारशङ्का का निराकरण करके इन्द्रियादि के समान क्या शब्द अपने अभिधेयार्थ का प्रतिपादन नहीं कर सकता ? वक्तृस्थ ज्ञान का अनुमान किए बिना स्वतः ही तात्पर्य भी जाना जा सकता है, क्योंकि वेदवचन के समान ही लौकिक वचन के कर्त्ता की आलोचना विशेष आवश्यक नहीं, लौकिक और वैदिक शब्दों में भी कोई मौलिक अन्तर नहीं माना जाता, अतः यदि वैदिक वचन स्वतः ही अन्वितार्थ का बोधन कराने की शक्ति रखते हैं, तब लौकिक वचनों में भी उसे मानना होगा, अन्यथा वैदिक वचनों से भी बोध क्यों होगा ? । आपके पूर्वोक्त आप्तप्रणीतत्वलिङ्गक अनुमान में अपेक्षित आप्तत्व का अर्थ भ्रान्त्यादि का अभाव ही है । आप्त पुरुष कभी भ्रान्त नहीं होता । भ्रान्ति की आशङ्का तो कहाँ नहीं हो सकती ? ऋषियों में भी जब भ्रान्ति की शङ्का हो सकती है, तब आधुनिक पुरुषों की बात ही क्या ? भ्रान्ति का देशतः कालतः या विषयतः निरूपण भी नहीं हो सकता, क्योंकि 'इस वाक्यार्थ में भ्रम नहीं' - इस प्रकार वाक्यार्थज्ञानपूर्वक ही शङ्का हटाई जा सकती है, वाक्यार्थज्ञान के पूर्व आप्तत्व ही असिद्ध है, अतः आप्तत्वरूप हेत्वाभास द्वारा अन्वितार्थ - ज्ञान का अनुमान क्योंकर हो सकेगा ? इस प्रकार लौकिक शब्द में अनुमानत्ववादी प्रभाकर का निराकरण हो जाने पर सभी शब्दों में अनुमानत्ववादी वैशेषिकादि अपने-आप निरस्त हो जाते हैं ।
एवं लौकिकशब्दानामनुमानत्ववारणात् । सर्वशब्दानुमानत्ववादिनोऽपि हि खेदिताः । । १०६ । । दुष्टवक्तृप्रणीतत्वदोषः शब्दे यदा भवेत् । तदा स्याद्व्यभिचारोऽपि पौरुषेयगिरां क्वचित् । । १०७ ।। अपौरुषेये वेदे तु पुरुषस्पर्शसंगतः । कलङ्को न विशङ्कयेत तत्कुतो व्यभिचारिता । । १०८ ।।
वैशेषिक और बौद्ध द्विप्रमाणवादी कहे जाते हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्षादि छः प्रमाणों में से केवल प्रत्यक्ष और अनुमान -दो ही प्रमाण मानते हैं । वैशेषिकादि सभी शब्दों को प्रमाण न मान कर वाक्यार्थ को अनुमेय मानते हुए कहते हैं-" शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भावः, समानविधित्वात् । यथा प्रसिद्धसमयस्यासन्दिग्धलिङ्गदर्शनप्रसिद्ध्यनुसरणाभ्यामतीन्द्रियेऽर्थे भवत्यनुमानमेव शब्दादिभ्योऽपीति" (प्र०भा०पृ १०७) ।
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