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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६ 'एतत्सदृशी मदीया गौः ।' वही उपमिति होती है । नगरस्थ में गवय का सादृश्य तब तक प्रतीत नहीं होता, जब तक गवय का दर्शन नहीं होता । कदाचित् जब वन की ओर पुरुष जाता है, गवय को देखता है, तब गवयगत गोप्रतियोगि सादृश्य का प्रत्यक्ष करता है, उसके अनन्तर दूरस्थ गौ में गवय के सादृश्य की जो प्रतीति होती हैं, उसे स्मृतिरूप नहीं मान सकते, क्योंकि नगरस्थ गौ में उसका अनुभव ही नहीं हुआ था, स्मरण कैसे होगा ? प्रत्यक्ष से गोगत सादृश्य का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि उस सादृश्य का गोरूप धर्मी दूर है, इन्द्रिय- सन्निकृष्ट नहीं । अतः गोगत सादृश्य की प्रतीति को मीमांसक और अद्वैत वेदान्ती उपमान कहा करते हैं । गवयगत गोसादृश्य का दर्शन करण ( उपमान प्रमाण) और गोगत गवय-सादृश्य का ज्ञान फल (उपमिति) होता है ।। १०९ - ११४ ।।
गवयस्थितसादृश्यदर्शनं करणं भवेत् ! फलं गोगतसादृश्यज्ञानमित्यवगम्यताम् । । ११५ ।। एतत्साधर्म्यवाक्यार्थादुपमानं समीरितम् । एवमेव हि वैधर्म्याद्धर्ममात्रा संभवेत् ।। ११६ ।। यथा तुरङ्ग इत्येष द्विशफो न गवादिवत् । इति वैधर्म्यवाक्यार्थं बुध्वा देशान्तरं गतः । । ११७ ।। पशुमेकफं इष्ट्वा तुरङ्ग इति बुध्यते । तथैव धर्ममात्रे च श्रुते संबन्धधीः क्वचित् । । ११८ । । दीर्घग्रीवः प्रलम्बोष्ठः कण्टकाशी क्रमेलकः । इति श्रुत्वा ततोऽन्यत्र विजानन्ति क्रमेलकम् । । ११९ । । एवं साधर्म्यवैधर्म्यधर्ममात्रविभेदतः । त्रेधातिदेशवाक्यार्थस्तस्मादुपमितिस्त्रिधा । । १२० ।। तदिदं दुर्मतं हेयं यतः संबन्धधीरियम् । प्रत्यक्षानुगृहीतेन शाब्देनैवोपजन्यते । । १२१ । । तेनाप्रदर्श्य वाच्यार्थं न शब्दः पर्यवस्यते । पूर्वं च गवयज्ञानान्न शक्यं तत्प्रदर्शनम् ।। १२२ ।। उपमानपदं लोके सादृश्ये सति विश्रुतम् । वैधर्म्यं धर्ममात्रे च तत्प्रयोगः कथं हि वः ।। १२३ ।। तथातिदेशशब्दोऽपि वाक्ये साधर्म्यबोधके । प्रसिद्धः सोऽपि चान्यत्र कथ्यमानो दुनोति माम् ।। १२४ ।। तस्मादनितरशरणं गोगतसादृश्यबोधमेव वयम् । उपमानं गृह्णीमो मानत्रयवादिनोऽपि तेन जिताः । । १२५ ।। अत्र सादृश्यविषये गुरुणा कलहोऽस्ति नः । पदार्थान्तरमेवेदं सादृश्यं मन्यते गुरुः । । १२६ ।। वयं गुणादिसामान्यसमाहारं वदामहे । पदार्थावसरे किञ्चित्तत्प्रकारो वदिष्यते ।।१२७ ।।
तार्किक रक्षाकार जो उपमान को अनुमान का प्रकार मानते हैं, वे गोगत गवयसादृश्य के ज्ञान का अनुमान किया करते हैं- यो यत्सादृश्यप्रतियोगी, तेनापि सदृशः, यथा करतलं करतलान्तरेण, गवयगतसादृश्यप्रतियोगी च गौः, तस्माद् गवयेनापि सदृशः' (ता.र. पृ. ९३) ।
वह उनका प्रकार युक्ति युक्त नहीं, क्योंकि 'यो यद्गतसादृश्यप्रतियोगी, स तेनापि सदृशः ' - इस प्रकार की सामान्य व्याप्तिमात्र के द्वारा अनुमान की प्रवृत्ति मानने पर 'यः कश्चिदग्निरस्ति' इसके समान अनियतविशेषक 'यत्किञ्चित्सादृश्यमस्ति' इतना ही प्रतीत हो सकता है, अभीष्ट विस्पष्ट ज्ञान नहीं हो सकता, जैसा कि गोगवय-सादृश्य का प्रत्यक्ष । अतः नियत निश्चय न होने के कारण यह सामान्यतो दृष्ट अनुमान नहीं है, अनुमान न हो सकने के कारण प्रमाणन्तर मानना होगा ।'
शङ्का - जब गोगत गवय - सादृश्य की प्रतीति हो रही है, तभी अनुपस्थित पुरुष में गवय के वैधर्म्य की भी प्रतीति हो रही है, अतः यदि सादृश्य प्रतीति को प्रमाणान्तर की अपेक्षा है, तब वैधर्म्य - प्रतीति को भी प्रमाणान्तर की अपेक्षा क्यों न होगी ?
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