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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६
सव्यभिचार हेतु को अनैकान्तिक कहते हैं, सव्यभिचारिता का अर्थ है - विपक्ष में रहना । इसको 'साधारण' नाम से भी अभिहित किया जाता है । इसका उदाहरण है- 'शब्दोऽनित्यः, प्रमेयत्वात्' । यहाँ प्रयुक्त प्रमेयत्व हेतु आकाशादि नित्य पदार्थों में भी रहने के कारण अनैकान्तिक है । जिस हेतु में विपक्षवृत्तित्व निश्चित न होकर सन्दिग्ध होता है, उसे सन्दिग्धानैकान्तिक कहते हैं, जैसे- 'सर्वे भावा क्षणिकाः सत्त्वात्'- यहाँ पर अक्षणिक पदार्थों में भी सत्त्व का बाध न होने के कारण हेतु में विपक्षवृत्तित्व सन्दिग्ध है, अतः यह सन्दिग्धानैकान्तिक है ।
सपक्ष के रहने पर भी जो हेतु पक्षमात्रवृत्ति होता है, उसे असाधारण कहा जा चुका है, जैसे-पृथिवी नित्या, गन्धवत्त्वात् । वरदराजादि (तार्किक) विद्वान् असाधारण हेतु को भी जो अनैकान्तिक मानते हुए कहते हैं कि जैसे जिस हेतु का अन्वय (भाव) अपने क्षेत्र (सपक्ष) का अतिक्रमण कर विपक्ष में रह जाता है, ऐसा 'प्रमेयत्व' हेतु व्यभिचारी होता है, वैसे ही हेतु का व्यतिरेक (अभाव) जब अपने विपक्षरूप क्षेत्र का अतिक्रमण कर सभी सपक्षों में रह जाता है, तब वह व्यभिचारी होता है, गन्धवत्त्व हेतु ऐसा ही है (द्रष्टव्य ता. र पृ. २१७) ।
वह तार्किकों का कहना पूर्णतया संगत नहीं, क्योंकि हेतु के अन्वय (भाव) का अपनी सपक्षभूत सीमा का उल्लङ्घन ही लोक में व्यभिचार कहा जाता है, और आप (तार्किकों) की ऊहा कुछ क्लिष्ट कल्पना भी है, अतः साधारण तु को ही हमने व्यभिचारी मान कर असाधारण को पृथक् हेत्वाभास कहा है । अथवा आपकी कल्पना के अनुसार असाधारण को भी सव्यभिचार मान लिया जाय, उससे हमारी कोई क्षति भी नहीं । फलतः चार या पाँच ही हेत्वाभास स्थिर होते हैं । तार्किकगण जो पाँच या छः हेत्वाभास मानते हैं, वह संगत नहीं ।।६५ ६८ ।।
तार्किकगण पाँच हेत्वाभास कहते हैं - (१) असिद्ध, (२) विरुद्ध, (३) अनैकान्तिक, (४) प्रकरणसम और (५) कालात्ययापदिष्ट । कुछ लोग अप्रयोजक को छठा हेत्वाभास मानते हैं । (श्री वरदराज ने अप्रयोजक के विषय में (ता. र. पृ. २३१ पर) कहा है- पञ्चैव कथमाभासा विद्यते ह्यप्रयोजकः । इति पर्यनुयोगोऽयं तार्किकस्य न युज्यते ।। यस्यानुकूलतर्कोऽस्ति स एव स्यात्प्रयोजकः । तदभावेऽन्यथासिद्धस्तस्याः स हि निवारकः ।।
आचार्य भासर्वज्ञ अनध्यवसित को साथ लेकर छः हेत्वाभास गिनाते हैं- “ असिद्धविरुद्धानैकान्तिकानध्यवसितकालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाः " ( न्या. भू.पू. ३०८ ) । इन में प्रकरणसम उस हेतु को कहते हैं, जिसका प्रतिहेतु (साध्याभाव-साधक) विद्यमान हो । प्रकरणसम को ही सत्प्रतिपक्ष भी कहते हैं । इसका उदाहरण है- 'वायुः अप्रत्यक्षः, अरूपवत्त्वात् मनोवत् । ' वायुः प्रत्यक्षः, स्पर्शवत्त्वाद्, घटवत् ।' इस प्रकरणसम को पृथक् हेत्वाभास मानना व्यर्थ है, क्योंकि मीमांसकाभिमत तीन या चार हेत्वाभासों में वह अन्तर्भुक्त हो जाता है । वस्तुतः समान बलवाले दो विरुद्ध हेतु एकत्र हो ही नहीं सकते, यदि माने जाते हैं, तब उन दो सदनुमानों के द्वारा प्रसाधित पदार्थ विरुद्ध दो आकारों का मानना होगा । यदि उन दोनों साधनों में प्रबल दुर्बलभाव है, तब दुर्बल के बाधित हो जाने पर 'बाधितविशेषणत्व' नाम का पक्ष दोष ही ठहरता है, उसे पृथक् हेत्वाभास मानने की क्या आवश्यकता ? (चिदानन्द पण्डित ने भी ऐसा ही कहा है- "प्रकरणसमत्वं तु दूषणान्तरं न सम्भवति, प्रबलदुर्बलयोर्विरोधे दुर्बलस्य प्रबलापहृतविषयत्वाद् बाधितविशेषणत्वस्य प्राप्तेः, तुल्यबलयोस्तु विरोधस्यैवानुपपत्तेः " ( नीति० पृ०
१४२) ।
शङ्का - जब एकत्र - प्रयुक्त दो विरोधी हेतुओं में कोई विशेषता (न्यूनाधिकभाव) का भान नहीं होता, तब उनमें आभिमानिक तुल्यबलता सम्भावित है । ( श्री वरदराज कहते हैं- " वास्तवतुल्यबलत्वाभावेऽपि अगृह्यमाणविशेषत्वेनाभिमानसिद्धसाम्येन प्रतिप्रमाणेन प्रतिरोधो विवक्षितः " ( ता० र० पृ. २२१ ) ।)
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