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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
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कथित असिद्ध भेद जब किसी एक वादी की दृष्टि में ही असिद्ध होते हैं, तब उन्हें अन्यतरासिद्ध कहते हैं, जैसे'बुद्धो मोहरहितः, सर्वज्ञत्वात्' - यह केवल मीमांसक की दृष्टि में असिद्ध हैं। दोनों वादियों की दृष्टि में असिद्ध होने पर उभयासिद्ध कहे जाते हैं, जैसे- 'शशो हिंस्रः, विषाणित्वात्' (श्री दिङ्नाग ने असिद्ध के चार भेद दिखाए हैं
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(१) उभयासिद्धः, (२) अन्यतरासिद्धः, (३) सन्दिग्धासिद्ध:, (४) आश्रयासिद्ध:, (न्या० प्र० पृ० ३) । श्री पार्थसारथि मिश्र ने पाँच प्रकार की असिद्धि बताई है - (१) स्वरूपासिद्धि, (२) सम्बन्धासिद्धि, (३) व्यतिरेकासिद्धि, (४) आश्रयासिद्धि (५) व्याप्यसिद्धि ( शा० दी० पृ० ६५) । श्री चिदानन्द पण्डित भी पाँच ही भेद मानते है - (१) स्वरूपासिद्धः (२) आश्रयासिद्धः, (२) सम्बन्धासिद्ध:, (४) व्यतिरेकासिद्ध:, (५) भागासिद्ध: ( नीति० पृ० १४१) । इन्हों ने पार्थसारथि मिश्र के समान भागासिद्ध को व्याप्यत्वासिद्ध नहीं माना है ) ।
(१३) विरुद्ध-विरुद्ध को ही वार्तिककार ने बाधक कहा है, वह दो प्रकार का होता है - साध्यस्वरूपबाधः, साध्यविशेषबाधः । (चिदानन्द पण्डित ने भी कहा है-बाधको द्विविधः - (१) साध्यस्वरूपबाधकः, (२) तद्विशेषबाधकः " (नीति० पृ० १४९) । जो हेतु साध्य से व्याप्त न होकर साध्याभाव से व्याप्त होता है, उसे साध्यस्वरूपविरुद्ध कहते हैं, जैसे-शब्दोऽनित्यः, कृतकत्वात् - यहाँ नित्यत्व के विपर्ययभूत अनित्यत्व से व्याप्त होने के कारण कृतकत्व हेतु नित्यत्व का विरोधी होने के कारण उसका बाधक होता है । साध्यविशेष- विपरीत विशेष से व्याप्त हेतु को विशेष विरुद्धः कहा जाता है, जैसे- क्षित्यादिकं सकर्तृकम्, कार्यत्वाद् घटवत्-यहाँ साध्यभूत क्षित्यादि के कर्त्ता की एक विशेषता है-अशरीरित्व, उसके साथ 'कार्यत्व' हेतु की व्याप्ति गृहीत नहीं है, अपितु उसके विपरीत शरीरित्वाभाव विशेषण से युक्त कर्तृत्व की व्याप्यता कार्यत्व में घटादिस्थल पर गृहीत होती है, अतः वह अशरीरित्व का बाधक है । अशरीरित्व का बाध होने पर अशरीरित्व-विशिष्ट कर्तृत्व का भी बाध हो जाता है । नैयायिक लोग जो यह कहा करते हैं कि, ' क्षित्यादि में शरीरी कर्त्ता का प्रत्यक्षतः बाध देखकर अशरीरित्व - विशिष्ट कर्त्ता की सिद्धि पर्यवसित होती है ।' यह उनका कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि क्षित्यादि का कोई अशरीरी कर्त्ता भी उपलब्ध नहीं होता, अतः यहाँ सकर्तृकत्वरूप हेतु साध्य का विरोधी ही ठहरता है, इस दोष को न जाननेवाले तार्किकों को केवल नमस्कार है । इस पर विशेष विचार श्री चिदानन्द पण्डित ने नीतितत्त्वाविर्भाव के ईश्वरवाद में किया है ।
सत्यं किंत्वन्वयस्यैव स्वस्थानादतिलङ्घनम् । व्यभिचारतया ख्यातं क्लिष्टस्त्वदुदितः क्रमः । । ६५ ।। तेन साधारणस्यैव व्यभिचारित्वमीरितम् । हेत्वाभासान्तरत्वेन चासाधारण ईरितः ।।६६ ।। यद्वा त्वदुक्तमार्गेण तस्यापि व्यभिचारतः । अनैकान्तिकतैवास्तु नास्माकं काचन क्षतिः ।। ६७ ।। तस्मात्त्रेधा चतुर्धा वा हेत्वाभासा व्यवस्थिताः । पञ्चधा तार्किकाः प्राहुः षोढान्ये तदसङ्गतम् ।।६८।। एवं परोदितैरेव पक्षहेतुनिदर्शनैः । विरुद्धसाधनेऽस्माकं विरुद्धाव्यभिचारिता । । ६९ ।। सर्वसत्प्रतिपक्षाणां विरुद्धाव्यभिचारिताम् । कदाचिदूचुराचार्या न त्वमुष्यैव केवलम् ।।७० ।। चिदानन्देन तु व्यक्तमयमेव तथोच्यते । यथा तथास्तु नामैतन्नाभासान्तरमत्र नः ।। ७१ ।। शब्दसादृश्यमेवात्र विद्यतेऽर्थस्तु भिद्यते । तस्माद्विरुद्धधर्माभ्यां व्याप्तिर्नैकस्य संभवेत् ।। ७२ ।। कथं तर्हि भवान् ब्रूते विरुद्धाव्यभिचारिणम् । सत्यं न साध्यते तत्र साक्षात्साध्यविपर्ययः ।।७३।। सकर्तृकत्वं वदतामिष्टा हीश्वरकर्तृता । सैवात्र वार्यतेऽस्माभिस्तेनार्थात्प्रतिकूलता ।।७४ ।।
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