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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
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प्रमाण कहते हैं) । शाब्द ज्ञान सदैव व्युत्पत्ति के अधीन होता है, अतः व्युत्पत्ति का प्रकार आरम्भ में दिखाया जाता है- वाक्यार्थानभिज्ञ व्युत्पित्सु बालक ‘गामानय', 'पुत्रस्ते जातः' इत्यादि वाक्यों को सुनने के अनन्तर जो व्युत्पन्न श्रोता की गवानयनादि की प्रवृत्ति या मुख-मण्डल पर उभरी हर्ष की रेखाओं को देखकर श्रोतृगत प्रवृत्त्यादि के द्वारा उनके जनक ज्ञान का अनुमान करता है-'अयं श्रोताउक्त शब्दोपस्थापितवाक्यार्थज्ञानवान्, तदनन्तरमेव प्रवर्तमानत्वात्।' बालक यह जानता है कि इस श्रोता की प्रवृत्ति गवानयनाद्यर्थ-ज्ञान के अनन्तर ही हो सकती है और वह अर्थज्ञान उक्त शब्दोच्चारण के अनन्तर ही उत्पन्न हुआ है, अतः वह बालक 'गामानय'-इत्यादि शब्दों में गवानयनाद्यर्थ-बोधकत्व निश्चित कर लेता है । उस समय तक सामूहिक अर्थ की बोधकता ही सामूहिक शब्द में स्थिर होती है, उसके अनन्तर 'गां बधान', 'अश्वमानय'-इत्यादि प्रयोगान्तरों में पदान्तरों के आवाप (ग्रहण) और उद्वाप (त्याग) को देखकर 'गो' शब्द सास्नादिमान् अर्थ का और 'आनय' शब्द आनयन क्रिया का वाचक है-इस प्रकार पदार्थ-विवेक से अवगत हो जाता है ।
पदों के द्वारा पदार्थ-बोधन शब्द-शक्ति से जनित होने के कारण शब्द का अभिधान व्यापार ही है-ऐसा पार्थसारथिमिश्रादि कहते हैं और चिदानन्दादि का कहना है कि, शब्द भी संस्कारोद्वोधन के द्वारा ही पदार्थ-बोध कराता है, अतः पदार्थ-ज्ञान स्मरणात्मक ही होता है । यद्यपि प्रत्येक पद का अपना एक नियत ही अर्थ होता है, तथापि आदि से लेकर सभी पदों का एक विशिष्टार्थ में तात्पर्य होता है, क्योंकि पदों से पदार्थ-ज्ञान हो जाने पर जो उसके अनन्तर ही एक विशिष्टार्थज्ञानरूप वाक्यार्थ-ज्ञान उत्पन्न होता है, वह क्या पदों के या पदार्थस्मृति के द्वारा उत्पादित होता हैइस प्रकार की चिन्तना में यह निश्चित हो जाता है कि, पद तो पदार्थ-बोधन में ही उपक्षीण हो जाते हैं और वाक्यार्थबोध से उनका व्यवधान भी है, अत: पदार्थ ही अपने संसर्गरूप वाक्यार्थ के बोधक सिद्ध होते हैं-यही तार्किकादि भी मानते हैं।
हमारा (नारायणभट्ट का) कहना यह है कि, पदार्थ लक्षणा वृत्ति के द्वारा ही वाक्यार्थ का बोध कराते हैं, क्योंकि वाच्यार्थ की अन्यथानुपपत्ति से लक्षणा होती है-पदों के द्वारा स्मर्यमाण गवादि पदार्थ यदि परस्पर अन्वय के बिना ही सामान्यार्थ-पर्यवसाई माने जायँ, तब पदों की व्युत्पत्ति के समय अवधृत एक विशिष्टार्थ में तात्पर्य सम्भव नहीं रह जाता, अतः पदों के वाच्यार्थ की उपपत्ति तभी हो सकती है, जब कि उनका एक विशिष्टार्थ में पर्यवसान हो । अतः गौ और आनयन का परस्पर अन्वय इस प्रकार अवगत हो जाता है कि 'इयमानीयमानैव गौः, गोसम्बद्धमेवेदमानयनम् । फलतः वाक्यस्थ पदों के द्वारा अवगत पदार्थ परस्पर अन्वय का लाभ करते हैं-इस प्रकार भाट्टाभिमत अभिहितान्वयवाद प्रदर्शित हो जाता है।।९०।।'
सकलपदान्तरपूर्तावितरपदार्थः समन्वितं स्वार्थम् । सर्वपदानि वदन्तीत्यन्येषामन्विताभिधानमतम् ।।१२।। अत्राकाङ्क्षा च योग्यत्वं सत्रिधिश्चेति तत्त्रयम् । वाक्यार्थावगमे सर्वे: कारणत्वेन कल्प्यते ।।१३।। गौरश्वः पुरुषो हस्तीत्याकाङ्क्षारहितेष्विह । अन्वयादर्शनात् तावदाकाङ्क्षा परिगृह्यते ।।९४ ।। अग्निना सिञ्चतीत्यादावयोग्यानामनन्वयात् । योग्यतापि परिग्राह्या सन्निधिस्त्वथ कथ्यते ।।१५।। तस्मादन्वसिद्धौ तात्पर्यं न स्वयं क्वचिद्धेतुः । सामग्र्यन्तरभावे नियमार्थं त्वर्थ्यते पुनस्तदपि ।।९६।। एवं गत्यन्तराभावाद् गुरुणापि समाश्रितः । शाब्दानामेव संसर्ग इत्ययं नियमोऽधुना ।।९७ ।। तेन द्वेधोपकारो नस्तत्रैकः पूर्वमीरितः । मानान्तरावबुद्धानां नान्वयः स्यादितीदृशः ।।१८।।
अन्योऽपि द्वारमित्यादावध्याहारे भविष्यति । शाब्दस्यैवान्वयार्हत्वाद् द्वारमाव्रियतामिति । शब्दाध्याहार एव स्यादित्येवं मादृशां मतम् ।।१९।।
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