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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
यदा पुनः स एवार्थः परवाक्येन बोध्यते । तदा परार्थमित्याहुस्तयोरेतावती भिदा ।।५२।। प्रतिज्ञया निगमनं हेतुनोपनयस्तथा । गतार्थ इति कः कुर्यात्पञ्चावयवघोषणम् ।।५३।। तस्मात् त्र्यवयवं ब्रूमः पौनरुक्त्यासहा वयम् । उदाहरणपर्यन्तं यद्वोदाहरणादिकम् ।।५४।। तदेवं पौनरुक्त्येन तथाध्याहारदोषतः । तर्कबौद्धमते हित्वा वयं त्र्यवयवे स्थिताः ।।५५।। अथ प्रतिज्ञाहेत्वोश्च दृष्टान्तस्य च दूषणम् । क्रमेण कथ्यतेऽस्माभिर्यद्वेद्यं वादिनां पुरः ।।५६।। यावज्जीवमहं मौनीत्युक्तो हि स्वोक्तिबाधनम् । नेन्दुश्चन्द्रगिरा वाच्य इति लोकविरुद्धता ।।५७।। शब्दादेः प्रागनित्यत्वमुक्तं येनैव तेन तु । नित्यत्वे पुनरुक्ते स्यात्पूर्वसंजल्पबाधनम् ।।५८।। हेतोर्व्याप्तिमतः पक्षसंबन्धित्वेन वेदनम् । सिद्धिरित्युच्यते हेतुसंपूर्तिस्तावतैव हि ।।५९।। तेषामेकतमांशस्याप्यभावे स्यादसिद्धता । हेतोर्व्याप्तेश्च पक्षस्य संबन्धस्य ग्रहस्य च ।।६०।। स च बाधक इत्येवं वार्तिके व्यपदिश्यते । द्विधा चासौ स्वरूपस्य विशेषस्य च बाधनात् ।।६१।। अशरीरित्वबाधे च कर्तृमत्तापि बाध्यते । प्रत्यक्षात्सशरीरत्वविशेषे बाधिते सति ।।६२।। अशरीरित्वमादाय स्थास्यामीति कृतोद्यमा । कर्तृमत्ता हि तस्यापि बाधे नश्यनिराश्रया ।।६३।। इत्थं साध्यनिरोधित्वादेष दूषणमेव नः । तमीदृशमजानब्यस्तार्किकेभ्योऽयमञ्जलिः ।।६४।।
कथित अनुमान दो प्रकार का कहा जाता है-(१) स्वार्थानुमान और (२) परार्थानुमान । जहाँ पर कोई व्यक्ति स्वयं धूमादि को देख कर व्याप्त्यादि का स्मरण करता है और अग्न्यादि का अनुमान करता है, उस अनुमान को स्वार्थानुमान कहते है और जब उसी पदार्थ का बोध प्रतिज्ञादि वाक्यों की सहायता से दूसरे को कराता है, तब उसको परार्थानुमान कहते हैं-यह उक्त दोनों अनुमानों का अन्तर है ।।५२।। (श्री पार्थसारथि मिश्र भी कहते हैं-"यस्तु प्रतिपत्रम) परमनुमानेन प्रतिपिपादयिषति, तेन साधनं प्रयोक्तव्यम्, येन वाक्येन यस्यानुमानबुद्धिरुत्पद्यते, तत्साधनमित्युच्यते" (शा.दी.पृ. ६४) आचार्य धर्मकीर्ति ने भी वैसा ही कहा है, किन्तु उनके व्याख्याकार श्री धर्मोत्तर का वक्तव्य नितान्त स्पष्ट है-"परार्थानुमानं शब्दात्मकम्, स्वार्थानुमानं तु ज्ञानात्मकम् । स्वस्मायिदं स्वार्थम्येन स्वयं प्रतिपद्यते, तत्स्वार्थम्, येन परं प्रतिपादयति, तत् परार्थम्" (धर्मोत्तर० पृ० ८८) । जिस धूम-दर्शन के द्वारा स्वयं परुष पर्वत में अग्नि का ज्ञान करता है, वह धम-दर्शन स्वार्थानमान और जिन प्रतिज्ञादि वाक्यों की सहाय दसरे परुष को पर्वत में अग्नि का बोध कराया जाता है, उन खण्ड वाक्यों या उनके संकलित कलेवर (महावाक्य) को परार्थानुमान कहा जाता है) । परार्थानुमानभूत महावाक्य के अवयवभूत खण्ड वाक्यों की संख्या में विवाद है, जैसा कि पार्थसारथि मिश्र (शा० दी० पृ० ६४ पर) कहते हैं- तच्च पञ्चतयं केचिद् द्वयमन्ये वयं त्रयम् । उदाहरणपर्यन्तं यद्वोदाहरणादिकम् ।।
तार्किकगण जो पाँच अवयव मानते हैं-(१) प्रतिज्ञा, (२) हेतु, (३) उदाहरण, (४) उपनय और (५) निगमन । जैसे-(१) अयं पर्वतोऽग्निमान्, (२) धूमवत्त्वात्, (३) यो यो धूमवान्, स सोऽग्निमान्, यथा महानसः, (४) धूमवांश्चायम्, (५) तस्मादग्निमान् । यहाँ पर दूसरे व्यक्ति को बोध कराने के लिए प्रयुक्त पक्षवचन को प्रतिज्ञा कहते हैं, जैसेपर्वतोऽग्निमान् । साधनत्वावेदक लिङ्ग-वचन को हेतु कहा जाता है, जैसे धूमवत्त्वात् । व्याप्ति-प्रदर्शनपूर्वक दृष्टान्ताभिधान को उदाहरण कहते हैं, जैसे-यो यो धूमवान्, स सोऽग्निमान्, यथा महानसः । निश्चितव्याप्तिक हेतु का पक्ष में प्रदर्शन
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