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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६ उपनय कहलाता है, जैसे- धूमवांश्चायम् । सहेतुक पक्ष का पुनवर्चन निगमन कहा जाता है, जैसे-तस्मादग्निमान् । तार्किकों का वह कहना उचित नहीं हैं, क्योंकि प्रतिज्ञा के द्वारा निगमन और हेतु के द्वारा उपनय गतार्थ हो जाता है, अतः पाँच अवयवों की घोषणा सम्भव नहीं । अतः हम (भाट्टगण) पुनरुक्ति को सहन न कर तीन ही अवयव मानते हैं- प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण अथवा उदाहरण, उपनय और निगमन । (महर्षि अक्षपाद ने पाँच अवयव माने हैं"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः " (न्या०सू०१ / २ / ३२ ) । न्यायभाष्यकार ने दश अवयववाद की भी चर्चा की है- “दशावयवानेके नैयायिका वाक्ये सञ्चक्षते - (१) जिज्ञासा, (२) संशय, (३) शक्यप्राप्ति, (४) प्रयोजन, (५) संशयव्युदास" (न्या० भा०१/१/३) इनके साथ प्रतिज्ञादि को मिला देने पर दस अवयव हो जाते हैं । युक्तिदीपिकाकार ने दस अवयवों की सुन्दर व्यवस्था की है - " तस्य पुनरवयवाः जिज्ञासासंशयप्रयोजनशक्यप्राप्तिसंशयव्युदासाश्च व्याख्याङ्गम्, प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपसंहारनिगमनानि परप्रतिपादनाङ्गम्" (युक्ति ० १ / २ / ६) । वैशेषिक भाष्यकार भी पञ्चावयववादी हैं- " प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नायाः " (प्र० भा० पृ० ११४) किन्तु क्रान्तिकारी वैशेषिकपुंगव श्री वादिवागीश्वर ने उनमें पुनरुक्ति देखकर केवल दो अवयवों की स्थापना की है - " वयं तन्न बुध्यामहे, साधनानुपयुक्तवचनस्याधिकत्वात् । प्रतिवादिना हि साधनजिज्ञासा कृता- 'किं प्रमाणमिति' । तत्र यावदङ्गविशिष्टं साधनम्, तावद् वक्तव्यम् । अङ्गे च द्वे एव व्याप्तिपक्षधर्मत्वे, न हि ततोऽधिकं प्रवृत्त्यङ्गम्" (म० म० पृ० ८५) ।
द्ध ग्रन्थकार जो कहते हैं कि - यो धूमवान् सोऽग्निमान् यथा महानसः, धूमवांश्चायम्-इन केवल दो अवयवों के प्रयोग मात्र से ‘तस्मादग्निमान् - यह अनुमिति पर्यवसित हो जाती है, अतः उदाहरण और उपनय नाम के दो अवयव पर्याप्त हैं (आचार्य दिङ्नाग ने कहा है- " पक्षहेतुदृष्टान्तवचनै र्हि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यते " ( न्या० प्र० पृ० १) । इस पर श्री पार्श्वदेव ने स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है-सौगतमते तु न पञ्चावयवमपीष्यते किन्तु तन्मते हेतुपुरःसर एव प्रयोगः क्रियते, ततो हेतुदृष्टान्तयोरेव साधनावयवत्वं न पक्षस्य । न साधनावयवत्वादस्य लक्षणमुच्ये किन्तु शिष्यस्य सम्यक्त्वलक्षणपरिज्ञानार्थम्" (न्या० प्र० बृ० पं० पृ० ४२) ।
बौद्धों का वह कथन भी अधूरा है, क्योंकि प्रतिज्ञा या निगमन के बिना पक्ष में साध्य का ज्ञान कैसे होगा ? उसका अध्याहार करना होगा, अतः इस अध्याहार-प्रसङ्ग दोष के कारण बौद्ध मत भी ग्राह्य नहीं हो सकता ।
निष्कर्ष यह है कि, पञ्चावयववाद में पुनरुक्ति और केवल दो अवयवों को मानने में साध्य का अध्याहार - प्रसङ्ग दोष होता है, अतः तार्किक और बौद्ध इन दोनों के मतों का त्याग करके हम ( भाट्टगण) तीन अवयव मानते हैं - (१) उदाहरण-पर्यन्त या (२) उदाहरणादि । उनमें (१) उदाहरण- पर्यन्त हैं- 'पर्वतोऽग्निमान् धूमवत्त्वाद्, यो धूमवान् सोऽग्निमान् यथा- महानसः' । (२) उदाहरणादि इस प्रकार हैं- 'यो धूमवान् सोऽग्निमान् यथा - महानसः, धूमवांश्चायम्, तस्मादग्निमान् ।' अब प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त के दोष क्रमशः कहे जाते हैं, जिनका ज्ञान वादिगणों के लिए आवश्यक है ।
(१) प्रतिज्ञाभास- दूसरे व्यक्ति को बोध कराने के लिए प्रयुक्त पक्षवचन को प्रतिज्ञा कहा गया है । जिज्ञासित धर्मविशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते हैं, अतः धर्मी में साध्य या साध्याभाव का पहले से निश्चय होने पर अथवा साध्य के अन्य अप्रसिद्ध होने पर न तो साध्य जिज्ञासित होता है और न उससे विशिष्ट धर्मी को पक्ष कह सकते हैं, इस प्रकार सिद्ध विशेषणक, बाधित विशेषणक और अप्रसिद्ध विशेषणक पक्ष पक्षाभास कहे जाते हैं और उनके बोधक प्रतिज्ञा
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