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________________ ५९० / १२१३ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६ उपनय कहलाता है, जैसे- धूमवांश्चायम् । सहेतुक पक्ष का पुनवर्चन निगमन कहा जाता है, जैसे-तस्मादग्निमान् । तार्किकों का वह कहना उचित नहीं हैं, क्योंकि प्रतिज्ञा के द्वारा निगमन और हेतु के द्वारा उपनय गतार्थ हो जाता है, अतः पाँच अवयवों की घोषणा सम्भव नहीं । अतः हम (भाट्टगण) पुनरुक्ति को सहन न कर तीन ही अवयव मानते हैं- प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण अथवा उदाहरण, उपनय और निगमन । (महर्षि अक्षपाद ने पाँच अवयव माने हैं"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः " (न्या०सू०१ / २ / ३२ ) । न्यायभाष्यकार ने दश अवयववाद की भी चर्चा की है- “दशावयवानेके नैयायिका वाक्ये सञ्चक्षते - (१) जिज्ञासा, (२) संशय, (३) शक्यप्राप्ति, (४) प्रयोजन, (५) संशयव्युदास" (न्या० भा०१/१/३) इनके साथ प्रतिज्ञादि को मिला देने पर दस अवयव हो जाते हैं । युक्तिदीपिकाकार ने दस अवयवों की सुन्दर व्यवस्था की है - " तस्य पुनरवयवाः जिज्ञासासंशयप्रयोजनशक्यप्राप्तिसंशयव्युदासाश्च व्याख्याङ्गम्, प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपसंहारनिगमनानि परप्रतिपादनाङ्गम्" (युक्ति ० १ / २ / ६) । वैशेषिक भाष्यकार भी पञ्चावयववादी हैं- " प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नायाः " (प्र० भा० पृ० ११४) किन्तु क्रान्तिकारी वैशेषिकपुंगव श्री वादिवागीश्वर ने उनमें पुनरुक्ति देखकर केवल दो अवयवों की स्थापना की है - " वयं तन्न बुध्यामहे, साधनानुपयुक्तवचनस्याधिकत्वात् । प्रतिवादिना हि साधनजिज्ञासा कृता- 'किं प्रमाणमिति' । तत्र यावदङ्गविशिष्टं साधनम्, तावद् वक्तव्यम् । अङ्गे च द्वे एव व्याप्तिपक्षधर्मत्वे, न हि ततोऽधिकं प्रवृत्त्यङ्गम्" (म० म० पृ० ८५) । द्ध ग्रन्थकार जो कहते हैं कि - यो धूमवान् सोऽग्निमान् यथा महानसः, धूमवांश्चायम्-इन केवल दो अवयवों के प्रयोग मात्र से ‘तस्मादग्निमान् - यह अनुमिति पर्यवसित हो जाती है, अतः उदाहरण और उपनय नाम के दो अवयव पर्याप्त हैं (आचार्य दिङ्नाग ने कहा है- " पक्षहेतुदृष्टान्तवचनै र्हि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यते " ( न्या० प्र० पृ० १) । इस पर श्री पार्श्वदेव ने स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है-सौगतमते तु न पञ्चावयवमपीष्यते किन्तु तन्मते हेतुपुरःसर एव प्रयोगः क्रियते, ततो हेतुदृष्टान्तयोरेव साधनावयवत्वं न पक्षस्य । न साधनावयवत्वादस्य लक्षणमुच्ये किन्तु शिष्यस्य सम्यक्त्वलक्षणपरिज्ञानार्थम्" (न्या० प्र० बृ० पं० पृ० ४२) । बौद्धों का वह कथन भी अधूरा है, क्योंकि प्रतिज्ञा या निगमन के बिना पक्ष में साध्य का ज्ञान कैसे होगा ? उसका अध्याहार करना होगा, अतः इस अध्याहार-प्रसङ्ग दोष के कारण बौद्ध मत भी ग्राह्य नहीं हो सकता । निष्कर्ष यह है कि, पञ्चावयववाद में पुनरुक्ति और केवल दो अवयवों को मानने में साध्य का अध्याहार - प्रसङ्ग दोष होता है, अतः तार्किक और बौद्ध इन दोनों के मतों का त्याग करके हम ( भाट्टगण) तीन अवयव मानते हैं - (१) उदाहरण-पर्यन्त या (२) उदाहरणादि । उनमें (१) उदाहरण- पर्यन्त हैं- 'पर्वतोऽग्निमान् धूमवत्त्वाद्, यो धूमवान् सोऽग्निमान् यथा- महानसः' । (२) उदाहरणादि इस प्रकार हैं- 'यो धूमवान् सोऽग्निमान् यथा - महानसः, धूमवांश्चायम्, तस्मादग्निमान् ।' अब प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त के दोष क्रमशः कहे जाते हैं, जिनका ज्ञान वादिगणों के लिए आवश्यक है । (१) प्रतिज्ञाभास- दूसरे व्यक्ति को बोध कराने के लिए प्रयुक्त पक्षवचन को प्रतिज्ञा कहा गया है । जिज्ञासित धर्मविशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते हैं, अतः धर्मी में साध्य या साध्याभाव का पहले से निश्चय होने पर अथवा साध्य के अन्य अप्रसिद्ध होने पर न तो साध्य जिज्ञासित होता है और न उससे विशिष्ट धर्मी को पक्ष कह सकते हैं, इस प्रकार सिद्ध विशेषणक, बाधित विशेषणक और अप्रसिद्ध विशेषणक पक्ष पक्षाभास कहे जाते हैं और उनके बोधक प्रतिज्ञा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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