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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम् ) ५९१ / १२१४ वाक्यों को प्रतिज्ञाभास कहते हैं । जैसे 'वह्निरुष्णः '- यह सिद्धविशेषणक, 'वह्निरनुष्णः ' - यह बाधितविशेषणक और 'क्षित्यादिकं सर्वज्ञकर्तृकम्'' - यह अप्रसिद्ध विशेषणक है, क्योंकि किसी भी घटादि कार्य में सर्वज्ञकर्तृकत्व प्रसिद्ध नहीं, वार्तिककार का (श्लो० वा० पृ० ८१ पर) स्पष्ट उद्घोष है- सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः । निराकरणवच्छक्या न चासीदिति कल्पना । साध्य का बाध प्रत्यक्षादि छः प्रमाणों से होता है, अतः बाधक के भेद से बाघित विषयकत्व के अवान्तर छः भेद हो जाते हैं, जैसे प्रत्यक्षबाध कहा जा चुका है - 'वह्निरनुष्णः' । एक अनुमान से जब दूसरा अनुमान प्रबल हो जाता है, तब अनुमान से दूसरे साध्य का बाध होता है, जैसे- 'मनोऽनिन्द्रियम् अभूतात्मकत्वाद्, दिगादिवत्' - इस अनुमान का साध्य उस अनुमान के द्वारा बाधित होता है, जो कि इन्द्रियत्व हेतु के द्वारा मन की सिद्धि करता है । इसी प्रकार शीघ्रगामी अनुमानों के द्वारा सर्वत्र मन्थरगामी अनुमानों का बाध होता है । शब्द प्रमाण से भी बाध होता है, जैसे कि 'यागादयः स्वर्गसाधनं न भवन्ति, क्रियात्वाद्, गमनवत्' - यहाँ पर " स्वर्गकामो यजेत " - इत्यादि वाक्यों के द्वारा यागादि में स्वर्ग-साधनता का बोध कराया जाता है, अतः स्वर्गसाधनत्वाभावरूप साध्य का शब्द प्रमाण से बाध हो जाता है । अथवा जैसे 'नरास्थि, स्पृश्यम्, प्राण्यङ्गत्वात्, शङ्खवत्'- यहाँ पर “नारं स्पृष्ट्वाऽस्थि सस्नेहं स्नात्वा विप्रो विशुध्यति " (मनु० ५ । ७) इत्यादि आगमों के द्वारा नरकपाल में अशुचित्व बोधित होता है, अतः यह आगम उक्त शुचित्वानुमान का बाधक है । 'गौर्गवयसदृशो न भवति, प्राणित्वात्, पुरुषवत्' - इत्यादि स्थलों पर उपमान प्रमाण से बाध होता है, क्योंकि वह गौ में गवय-सादृश्य का साधक माना जाता है । 'देवदत्तो बहिर्नास्ति, तत्रादृश्यमानत्वात्' - यहाँ अर्थापत्ति से बहिर्नास्तित्वरूप साध्य का बाध होता है । 'वायुः रूपवान् द्रव्यत्वात् पृथिवीवत्' - यहाँ पर अनुपलब्धि प्रमाण के द्वारा वायुगत रूपवत्ता का बाध होता है । कथित दोषों से अतिरिक्त प्रतिज्ञा के अन्य दोष भी हैं, जैसे- 'यावज्जीवमहं मौनी' - यहाँ स्व-वचन - विरोध और 'इन्दुः चन्द्रपदप्रतिपाद्यो न भवति' - यहाँ परलोकविरोध है । जिस व्यक्ति ने पहले शब्द में अनित्यत्व कहा है, वही व्यक्ति यदि अब शब्द में नित्यत्व कहता है, तब पूर्व वचन का विरोध होत है ('आचार्य दिङ्नाग ने सब मिला कर पक्षाभास के नौ भेद किये हैं- (१) प्रत्यक्षविरुद्धः, (२) अनुमानविरुद्धः, (३) आगमविरुद्धः, (४) लोकविरुद्ध:, (५) स्ववचनविरुद्ध:, (६) अप्रसिद्धविशेषणः, (७) अप्रसिद्धविशेष्यः, (८) अप्रसिद्धोभयः, (९) प्रसिद्धसम्बन्धश्च" (न्या० प्र० पृ० २ ) । चिदानन्द पण्डित ने केवल इतना ही कहा है“सिद्धविशेषणः, बाधितविशेषणः, अप्रसिद्धविशेषणः पक्षाभासा एवेति तदावेदकं वचनमपि प्रतिज्ञाभास एव" (नीति० पृ० ४१) । वार्तिककार ने तो विस्तारपूर्वक प्रतिज्ञाभासों का निरूपण (श्लो० वा० पृ० ३६५ से) किया है- अग्राह्यता तु शब्दादेः प्रत्यक्षेण विरुध्यते । तेषामश्रावणत्वादि विरुद्धमनुमानतः ।। नहि श्रावणता नाम प्रत्यक्षेणावगम्यते । साऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां गम्यते बधिरादिषु ।। त्रिधा शब्दविरोधः स्यात् प्रतिज्ञादिविभागतः । प्रतिज्ञापूर्वसञ्जल्प- सर्वलोकप्रसिद्धितः । । इत्यादि ।। (२) हेत्वाभास- चिदानन्द पण्डित के अनुसार ही व्याप्त साधन धर्म को हेतु कहा जाता है, उसके (१) असिद्ध, (२) विरुद्ध, (३) अनैकान्तिक और (४) असाधारण नाम के चार हेत्वाभास होते हैं । उनका क्रमशः निरूपण किया जाता है (१) असिद्ध हेतु की सिद्धि (क्षमता) का अभाव असिद्धि कहलाता है, व्याप्तिविशिष्ट हेतु का पक्ष - वृत्तित्वेन ज्ञान ही सिद्धि पदार्थ है, क्योंकि उक्त तीनों (व्याप्ति, पक्षधर्मता और ज्ञानरूप) धर्मों के होने पर हेतु की सम्पूर्ति मानी जाती है । उन अंशों में से किसी एक अंश का भी अभाव होने पर असिद्धि दोष होता है, अतः व्याप्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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