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________________ ५९२/१२१५ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ के अभाव में हेतु को व्याप्यत्वासिद्ध, पक्षधर्मता के न होने पर सम्बन्धासिद्ध और ज्ञान के न होने पर स्वरूपासिद्ध कहलाता है । स्वरूपासिद्ध का अर्थ है-अत्यन्त अप्रसिद्ध, जैसे-'बुद्धो मोहरहितः, सर्वज्ञत्वात्'-यहाँ सर्वज्ञत्व हेतु हमारे मतानुसार अत्यन्त अज्ञात और अप्रसिद्ध है । इसी के दो भेद होते हैं-(१) विशेषणासिद्ध और (२) विशेष्यासिद्ध। (१) 'बुद्धो धर्मोपदेष्टा, सर्वज्ञत्वे सति शरीरित्वात्'-यहाँ पर हेतु का सर्वज्ञत्वरूप विशेषण असिद्ध है और (२) 'बुद्धो धर्मोपदेष्टा, शरीरित्वे सति सर्वज्ञत्वात्'-यहाँ पर हेतु का विशेष्य (सर्वज्ञत्व) अंश असिद्ध है । व्याप्ति का अभाव होने पर व्याप्यत्वासिद्धि होती है, जैसे-'क्रतुहिंसा अधर्मः, हिंसात्वात्-यहाँ हेतु में सोपाधिकत्व होने के कारण व्याप्यत्वासिद्धि है । पक्ष का न होना ही हेतु की आश्रयासिद्धि है, जैसे-'गगनकुसुमं सुरभि, कुसुमत्वात्, चम्पकवत्'-यहाँ पर गगनकुसुमरूप पक्ष का अत्यन्त अभाव है। जिस हेत में पक्ष का सम्बन्ध या वत्तित्व न हो. उसे सम्बन्धासिद्ध कहते हैं, जैसे-शब्दोऽनित्यः, चाक्षुषत्वात् । यहाँ चाक्षुषत्व का शब्दरूप पक्ष के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अतः यह सम्बन्धासिद्ध है । जिस हेतु का पक्ष के एक भाग से सम्बन्ध नहीं होता, उसे भागासिद्ध कहा जाता है । इस भागासिद्ध को ही पूरे पक्ष में व्याप्त न होने के कारण शास्त्रदीपिकादि (पृ० ६५) में व्याप्यत्वासिद्ध कहा गया है, जैसे-वेदा: पौरुषेयाः, उपाख्यानात्मकत्वात् । यहाँ पर वेद का कुछ भाग ही कथात्मक है, सभी वेद नहीं । जहाँ पर विशिष्टात्मक हेतु के विशेषण भाग का पक्ष के साथ सम्बन्ध नहीं होता, उस हेतु को विशेषणासिद्ध कहते हैं, जैसे-'गगनम् अनित्यम्, जन्यत्वे सति द्रव्यत्वात्'-यहाँ जन्यत्वरूप विशेषण भाग का गगन से सम्बन्ध नहीं, क्योंकि गगन नित्य होता है, जन्य नहीं । जिस हेतु के विशेष्य अंश का पक्ष से सम्बन्ध नहीं, उसे विशेष्यासिद्ध कहा करते हैं, जैसे-'गगनम् अनित्यम्, द्रव्यत्वे सति जन्यत्वात्'-यहाँ विशेष्यभूत जन्यत्व पक्ष में नहीं रहता । जिस हेतु के विशेषण का कोई व्यावर्त्य नहीं होता, उसे व्यर्थ विशेषणासिद्ध कहा जाता है, जैसे-'घटोऽनित्यः, द्रव्यत्वे सति कृतकत्वात्'-यहाँ पर द्रव्यत्वरूप विशेषण का कोई व्यावर्त्य या प्रयोजन न होने के कारण वैयर्थ्य निश्चित है । इसी प्रकार 'घटोऽनित्यः, कृतकत्वे सति द्रव्यत्वात्'-यहाँ हेतु व्यर्थ विशेष्यासिद्ध है, क्योंकि उसका विशेष्यभूत द्रव्यत्व भाग निरर्थक है । जब ऐसे हेतु का प्रयोग किया जाता है, जो पक्ष-सम्बन्धी न होकर अन्य-सम्बन्धी होता है, तब उसे व्यधिकरणासिद्ध कहा जाता है, जैसे-'घटोऽनित्यः, तद्गुणस्य कृतकत्वात्'-यहाँ कृतकत्वरूप हेत घट में न रह कर उसके गण में रहता है, अतः व्यधिकरणासिद्ध है । जिस हेत का पक्ष से व्यतिरेक (भेद) नहीं होता, उसे व्यतिरेकासिद्ध कहते हैं, जैसे-'गगनम् अनित्यम् गगनत्वात्'-यहाँ पर गगनरूप पक्ष से व्यतिरिक्त गगनत्वरूप हेतु नहीं, अतः वह व्यतिरेकासिद्ध कहा जाता है । जिस हेतु के रूपादि का ज्ञान नहीं होता, उसे अज्ञानासिद्ध या सन्दिग्धासिद्ध कहते हैं । जैसे-'देवदत्तो बहुधनो भविष्यति, तद्धेतुभूतादृष्टशालित्वात्'-यहाँ कथित अदृष्ट के सद्भाव में कोई प्रमाण नहीं, अतः इसमें अज्ञातत्व है । इसी प्रकार 'पर्वतोऽग्निमान् धूमवत्त्वात्'इतना ही प्रयोग करने पर व्याप्ति का उपदर्शन न होने के कारण हेतु को व्याप्यत्वासिद्ध कहते हैं । इसी प्रकार अज्ञातासिद्धि के विशेष प्रकार सन्दिग्ध विशेषणासिद्धादि की कल्पना स्वयं कर लेनी चाहिए । तार्किकगण अपने स्वरूपासिद्ध का लक्षण करते हैं-पक्षे हेतुस्वरूपाभावः', फलतः हम जिसे सम्बन्धासिद्ध कहते हैं, वही उनका स्वरूपासिद्ध ठहरता है, जो कि संगत नहीं, क्योंकि स्वरूपासिद्ध वह हेतु है, जिसका लोक में स्वरूप ही सिद्ध या प्रसिद्ध न हो, जैसे सर्वज्ञत्वादि हेतु और 'शब्दोऽनित्यः चाक्षुषत्वात्'-यहाँ चाक्षुषत्व हेतु स्वरूपतः अप्रसिद्ध नहीं, रूपादि में प्रसिद्ध है, अतः शब्दरूप पक्ष के साथ उसका सम्बन्ध न होने के कारण उसे सम्बन्धासिद्ध ही कहा जा सकता है, स्वरूपासिद्ध नहीं, अतः सम्बन्धासिद्ध से स्वरूपासिद्ध का महान अन्तर होने के कारण दोनों को एक जा सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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