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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ के अभाव में हेतु को व्याप्यत्वासिद्ध, पक्षधर्मता के न होने पर सम्बन्धासिद्ध और ज्ञान के न होने पर स्वरूपासिद्ध कहलाता है । स्वरूपासिद्ध का अर्थ है-अत्यन्त अप्रसिद्ध, जैसे-'बुद्धो मोहरहितः, सर्वज्ञत्वात्'-यहाँ सर्वज्ञत्व हेतु हमारे मतानुसार अत्यन्त अज्ञात और अप्रसिद्ध है । इसी के दो भेद होते हैं-(१) विशेषणासिद्ध और (२) विशेष्यासिद्ध। (१) 'बुद्धो धर्मोपदेष्टा, सर्वज्ञत्वे सति शरीरित्वात्'-यहाँ पर हेतु का सर्वज्ञत्वरूप विशेषण असिद्ध है और (२) 'बुद्धो धर्मोपदेष्टा, शरीरित्वे सति सर्वज्ञत्वात्'-यहाँ पर हेतु का विशेष्य (सर्वज्ञत्व) अंश असिद्ध है ।
व्याप्ति का अभाव होने पर व्याप्यत्वासिद्धि होती है, जैसे-'क्रतुहिंसा अधर्मः, हिंसात्वात्-यहाँ हेतु में सोपाधिकत्व होने के कारण व्याप्यत्वासिद्धि है । पक्ष का न होना ही हेतु की आश्रयासिद्धि है, जैसे-'गगनकुसुमं सुरभि, कुसुमत्वात्, चम्पकवत्'-यहाँ पर गगनकुसुमरूप पक्ष का अत्यन्त अभाव है।
जिस हेत में पक्ष का सम्बन्ध या वत्तित्व न हो. उसे सम्बन्धासिद्ध कहते हैं, जैसे-शब्दोऽनित्यः, चाक्षुषत्वात् । यहाँ चाक्षुषत्व का शब्दरूप पक्ष के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अतः यह सम्बन्धासिद्ध है । जिस हेतु का पक्ष के एक भाग से सम्बन्ध नहीं होता, उसे भागासिद्ध कहा जाता है । इस भागासिद्ध को ही पूरे पक्ष में व्याप्त न होने के कारण शास्त्रदीपिकादि (पृ० ६५) में व्याप्यत्वासिद्ध कहा गया है, जैसे-वेदा: पौरुषेयाः, उपाख्यानात्मकत्वात् । यहाँ पर वेद का कुछ भाग ही कथात्मक है, सभी वेद नहीं । जहाँ पर विशिष्टात्मक हेतु के विशेषण भाग का पक्ष के साथ सम्बन्ध नहीं होता, उस हेतु को विशेषणासिद्ध कहते हैं, जैसे-'गगनम् अनित्यम्, जन्यत्वे सति द्रव्यत्वात्'-यहाँ जन्यत्वरूप विशेषण भाग का गगन से सम्बन्ध नहीं, क्योंकि गगन नित्य होता है, जन्य नहीं । जिस हेतु के विशेष्य अंश का पक्ष से सम्बन्ध नहीं, उसे विशेष्यासिद्ध कहा करते हैं, जैसे-'गगनम् अनित्यम्, द्रव्यत्वे सति जन्यत्वात्'-यहाँ विशेष्यभूत जन्यत्व पक्ष में नहीं रहता । जिस हेतु के विशेषण का कोई व्यावर्त्य नहीं होता, उसे व्यर्थ विशेषणासिद्ध कहा जाता है, जैसे-'घटोऽनित्यः, द्रव्यत्वे सति कृतकत्वात्'-यहाँ पर द्रव्यत्वरूप विशेषण का कोई व्यावर्त्य या प्रयोजन न होने के कारण वैयर्थ्य निश्चित है । इसी प्रकार 'घटोऽनित्यः, कृतकत्वे सति द्रव्यत्वात्'-यहाँ हेतु व्यर्थ विशेष्यासिद्ध है, क्योंकि उसका विशेष्यभूत द्रव्यत्व भाग निरर्थक है । जब ऐसे हेतु का प्रयोग किया जाता है, जो पक्ष-सम्बन्धी न होकर अन्य-सम्बन्धी होता है, तब उसे व्यधिकरणासिद्ध कहा जाता है, जैसे-'घटोऽनित्यः, तद्गुणस्य कृतकत्वात्'-यहाँ कृतकत्वरूप हेत घट में न रह कर उसके गण में रहता है, अतः व्यधिकरणासिद्ध है । जिस हेत का पक्ष से व्यतिरेक (भेद) नहीं होता, उसे व्यतिरेकासिद्ध कहते हैं, जैसे-'गगनम् अनित्यम् गगनत्वात्'-यहाँ पर गगनरूप पक्ष से व्यतिरिक्त गगनत्वरूप हेतु नहीं, अतः वह व्यतिरेकासिद्ध कहा जाता है । जिस हेतु के रूपादि का ज्ञान नहीं होता, उसे अज्ञानासिद्ध या सन्दिग्धासिद्ध कहते हैं । जैसे-'देवदत्तो बहुधनो भविष्यति, तद्धेतुभूतादृष्टशालित्वात्'-यहाँ कथित अदृष्ट के सद्भाव में कोई प्रमाण नहीं, अतः इसमें अज्ञातत्व है । इसी प्रकार 'पर्वतोऽग्निमान् धूमवत्त्वात्'इतना ही प्रयोग करने पर व्याप्ति का उपदर्शन न होने के कारण हेतु को व्याप्यत्वासिद्ध कहते हैं । इसी प्रकार अज्ञातासिद्धि के विशेष प्रकार सन्दिग्ध विशेषणासिद्धादि की कल्पना स्वयं कर लेनी चाहिए ।
तार्किकगण अपने स्वरूपासिद्ध का लक्षण करते हैं-पक्षे हेतुस्वरूपाभावः', फलतः हम जिसे सम्बन्धासिद्ध कहते हैं, वही उनका स्वरूपासिद्ध ठहरता है, जो कि संगत नहीं, क्योंकि स्वरूपासिद्ध वह हेतु है, जिसका लोक में स्वरूप ही सिद्ध या प्रसिद्ध न हो, जैसे सर्वज्ञत्वादि हेतु और 'शब्दोऽनित्यः चाक्षुषत्वात्'-यहाँ चाक्षुषत्व हेतु स्वरूपतः अप्रसिद्ध नहीं, रूपादि में प्रसिद्ध है, अतः शब्दरूप पक्ष के साथ उसका सम्बन्ध न होने के कारण उसे सम्बन्धासिद्ध ही कहा जा सकता है, स्वरूपासिद्ध नहीं, अतः सम्बन्धासिद्ध से स्वरूपासिद्ध का महान अन्तर होने के कारण दोनों को एक जा सकता।
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