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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६
पक्षमात्रवृत्ति हेतु के द्वारा साध्य की पक्षमात्र में स्थिति सिद्ध होती है, जब कि अन्यत्र स्थित पदार्थ को पक्ष में सिद्ध करना हेतु की योग्यता मानी जाती है । फलतः सपक्ष में सत्त्व न होने के कारण केवल व्यतिरेकी भी शेष चार रूपों से युक्त होता है । अतः अनुमान के केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी नाम के तीन या केवलान्वयी और अन्वयव्यतिरेकी नाम के दो भेद सिद्ध हो गये ।
वही अनुमान प्रकारान्तर से दो प्रकार का होता है-(१) दृष्टम्, (२) सामान्यतो दृष्टम् । इनमें दृष्टैकव्यक्ति विषयक अनुमान को हमलोग दृष्ट कहते हैं, जैसे कि कृत्तिका नक्षत्र के उदय को देखकर रोहिणी नक्षत्र की आसत्ति अनुमित होती है। (श्री चिदानन्द पण्डित भी कहते हैं-"तत्तु द्विविधम्-दृष्टं सामान्यतो दृष्टं चेति । तत्र दृष्टेकविषयं दृष्टम्, यथा स्वरेण पुत्रानुमानम्" (नीति. पृ. १४०) । अर्थात् हेतु विशेष से साध्यविशेष की सिद्धि जिस अनुमान में की जाती है, उसे दृष्ट या विशेषतो दृष्ट कहा जाता है, जैसे पुत्र का स्वर वह विशेष हेतु है, जो कि अन्य पुरुष में नहीं होता या कृतिका का उदय ही वह विशेष हेतु है, जिसके पश्चात् रोहिणी का उदय होता है ।) जहाँ पर सामान्य हेतु के द्वारा सामान्य साध्य की सिद्धि होती है, उसे सामान्यतो दृष्ट कहते हैं, जैसे धूम सामान्य से अग्नि सामान्य की अनुमिति ।।४६।।
व्याप्त्येकशरणं तावदनुमानमिति स्थितम् । तद्व्याप्तिदर्शितान्मार्गाञ्चलितं क्षमते कुतः ।।४७।। ततश्च व्याप्तिविज्ञाने यादृशं वस्तु विद्यते । तादृगेवानुमातव्यं यथोष्णो भास्वरोऽनलः ।।४८।। न चातीन्द्रियवस्तूनां प्रारदृष्टाकारयोगिता । दृश्यत्वं तेजसां दृष्टं चक्षुषस्तदसंभवात् ।।४९।। अत एवं हि सर्वत्राप्यत्यन्तादृष्टसाधने । विशेषबाधकं नाम दोषं घोषयितास्महे ।।५० ।। तस्माद्रूपादिसंदर्शनान्यथानुपपत्तितः । चक्षुराद्याः प्रसाध्यन्ते न तेष्वनुमितिर्मता ।।५१।।
तार्किकगण जो प्रत्यक्ष-योग्य अग्न्यादिविषयक अनुमान को दृष्ट और चक्षुरादि अतीन्द्रिय पदार्थ विषयक अनुमान को सामान्यतो दृष्ट कहते हैं, जैसा कि भाष्यकार ने अनुवादरूप में कहा है - तत्तु द्विविधं प्रत्यक्षतो दृष्ट सम्बन्धं सामान्यतोदृष्ट सम्बन्धं च । प्रत्यक्षतो दृष्ट सम्बन्धं यथा धूमाकृतिदर्शनाद् अग्न्याकृतिविज्ञानम् । सामान्यतो दृष्ट सम्बन्धं यथा देवदत्तस्य गतिपूर्विकां देशान्तरप्राप्तिमुपलभ्यादित्यगतिस्मरणम्" (शा.भा.पृ. ३६-३७)
तार्किकों का वह कहना अयुक्त है, क्योंकि अतीन्द्रिय पदार्थों का अनुमान नहीं किया जा सकता, चक्षुरादि पदार्थों की सिद्धि अर्थापत्ति से ही होती है, अनुमान से नहीं, क्योंकि अनुमान का एक मात्र सहारा हैं-व्याप्ति, व्याप्ति के विषय में कहा जा चुका है कि व्याप्य और व्यापक पदार्थों का सामान्यतः या विशेषतः भूयोदर्शन से व्याप्ति साध्य होती है, जैसा कि वार्तिककार ने (श्लो. वा. पृ. ३५० पर) कहा है- भूयोदर्शनगम्या च व्याप्ति: सामान्यधर्मयोः । ज्ञायते भेदहानेन क्वचिच्चापि विशेषयोः ।। कृत्तिकोदयमालक्ष्य रोहिण्यासत्तिक्लृप्तिवत् । अतीन्द्रिय पदार्थों का तो कभी भी दर्शन नहीं होता, अतः अनुमान अपने ही ऐन्द्रियक स्थल पर अटल है, अतीन्द्रिय स्थल पर उसके चलने की क्षमता नहीं । अतः व्याप्ति-ज्ञान में जैसी वस्तु अवभासित होती है, वैसी ही अनुमान से गृहीत हो सकती है, जैसे-अग्नि उष्ण
और भास्वर (प्रकाशक) है । अग्न्यादि प्रत्यक्ष-दृष्ट पदार्थों का भूयोदर्शन और आकारानुगम-योगिता जैसी होती, वैसी चक्षुरादि अतीन्द्रिय पदार्थों में सम्भव नहीं । अत एव सर्वत्रादृष्ट साधन में विशेषबाधक नाम का दोष घोषित किया जाता है । अतः रूपादिविषयक ज्ञान की अन्यथानुपपत्तिरूप अर्थापत्ति के द्वारा चक्षुरादि की सिद्धि होती है, किसी हेतु के द्वारा उनकी अनुमिति नहीं ।
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