________________
५८६ / १२०९
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६ को व्यापक और अल्पदेश में रहनेवाले को व्याप्य कहते हैं । अग्निरूप भाव पदार्थ धूम की अपेक्षा अयः पिण्डादि अधिक देश में रहने के कारण व्यापक और उसका अभाव अल्प देश में रहता है, अतः व्याप्य हो जाता है । धूमरूप भाव पदार्थ वह्नि की अपेक्षा अल्प देश में रहने के कारण व्याप्य और उसका अभाव अधिक देश में रह जाने के कारण व्यापक हो जाता है ।। ३५ ।।
इस प्रकार का वैपरीत्य वार्तिककार ने भी दिखाया है - "व्याप्यव्यापकभावो हि भावयोर्यादृगिष्यते । तयोरभावयोस्तस्माद् विपरीतः प्रतीयते ।। " ( श्लो. वा. पृ. ३८५)
(१) जिस अनुमान में उभर्यावध व्याप्ति सुलभ होती है, उसे अन्वय-व्यतिरेकी कहते हैं, जैसे- धूम से अग्नि का अनुमान । धूमका अग्नि के साथ अन्वय महानसादि में और अग्नि का अभाव होने पर धूम का अभाव महाह्रदादि में देखा जाता है । (२) जिस अनुमान में केवल अन्वय व्याप्ति होती है, वह केवलान्वयी है, जैसे "ज्ञानं ज्ञानान्तरप्रकाश्यम्, वस्तुत्वाद्, घटवत्" - इत्यादि । यहाँ पर ज्ञान-प्रकाश्यत्व का अभाव होने पर कहीं पर भी वस्तुत्वाभाव नहीं दिखाया जा सकता, क्योंकि सभी पदार्थ ज्ञान-प्रकाश्य होते हैं, अतः यहाँ व्यतिरेकव्याप्ति का अभाव है । (३) जिस अनुमान में व्यतिरेक व्याप्ति ही होती हैं, उसे केवल व्यतिरेकी कहते हैं, जैसे-सर्व ज्ञानं स्वप्रकाशम्, ज्ञानत्वात् । यहाँ पर केवल व्यतिरेक व्याप्ति ही है- 'यस्य स्वप्रकाशत्वं नास्ति, तस्य ज्ञानत्वमपि नास्ति, यथा घटस्य ।' यहाँ पर 'यस्य स्वप्रकाशत्वम्, तस्य ज्ञानत्वम्'- इस प्रकार की अन्वय व्याप्ति कहीं भी नहीं दिखाई जा सकती । इस प्रकार का व्यतिरेकी हेतु अवीत हेतु भी कहा जाता है । उनमें व्यतिरेकी अनुमान को भाट्टगण नहीं मानते, उसके स्थान पर अर्थापत्ति नाम के पञ्चम प्रमाण को अभिषिक्त करते हैं ।
क्वचित्प्रसिद्धमन्यत्र साध्यते ह्यनुमानतः । स्वप्रकाशत्वधर्मो हि सिद्धो नान्यत्र कुत्रचित् ।। ३७।। तेन तत्साधने पक्ष प्रसिद्धविशेषणः । एवं च दुष्टपक्षोऽयं व्यतिरेकी निवार्यताम् ।। ३८ ।। यच्चानुकूलतर्फे सत्यप्रसिद्धविशेषणः । न दोष इति भाषन्ते तार्किकास्तदसङ्गतम् ।।३९ ।। तर्कों हि नाप्रसिद्धार्थं क्वचित्साधयितुं क्षमः । अतोऽप्रसिद्धतादोषस्तकें सत्यपि दुस्त्यजः ।।४०।। अत एव चिदानन्दः केवलव्यतिरेकिणम् । नैव साक्षान्निराचक्रे नापि साक्षादुपाददे ।। ४१ ।। तस्मात्सामान्यतः सिद्धिहीनाश्चेद्व्यतिरेकिणः । सर्वथा वारणीया इत्येतत्तावद्व्यवस्थितम् ।।४२।। इह च स्वप्रकाशत्वे नास्ति सामान्यतोऽनुमा । वस्तुत्वादेर्हि धर्मस्य नात्यन्तं नास्तिता क्वचित् ।।४३।। पक्षमात्रस्थितं सिध्येत्पक्षमात्रस्थहेतुना । अन्यत्र स्थितमाक्रष्टुं तद्गतस्यैव पाटवम् ।।४४।। दृष्टैकव्यक्तिविषयं दृष्टमिष्टं हि मादृशाम् । कृत्तिकोदयमालक्ष्य रोहिण्यनुमितिर्यथा ।। ४५ ।। एवं सामान्यतो व्याप्तिदृष्ट्या यत्रानुमीयते । तद्धि सामान्यतो दृष्टं यथा वन्यनुमादिकम् ।।४६।।
यह एक साधारण नियम है कि, कहीं प्रसिद्ध साध्य की अनुमान के द्वारा अन्यत्र सिद्धि की जाती है । 'ज्ञानं स्वप्रकाशम्’–यहाँ पर ‘स्वप्रकाशत्व' धर्म अन्यत्र कहीं भी प्रसिद्ध नहीं, अतः स्वप्रकाशत्व की सिद्धि करने पर पक्ष में 'अप्रसिद्धविशेषणता' दोष है, अत एव दुष्टपक्षक व्यतिरेकी अनुमान उपेक्षणीय है । यह जो तार्किक लोग कहा करते हैं कि अनुकूल तर्क के रहने पर अप्रसिद्ध विशेषणता दोष नहीं माना जाता, जैसा कि श्री गङ्गेशोपाध्याय ने कहा है - " अत एव यावदेवानुकूलतर्को नावतरति, तावदेव दशाविशेषेऽसाधारण्यं दोष इत्युक्तम्" केवल व्यतिरेकी पृ० १४२८)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org