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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) एतद्घटजनकः स्यात्, तदा एतद्घटनियतपूर्ववर्ती स्यात्' । दो पदार्थों की परस्पराश्रित सिद्धि को अन्योऽन्याश्रय कहा जाता है, जैसा कि महाभाष्यकार कहते हैं - "सतामादैचां संज्ञया भवितव्यम्, संज्ञया चादैचो भाव्यन्ते-तदितरेतराश्रयं भवति, इतरेतराश्रयाणि च कार्याणि न प्रकल्पन्ते, तद्यथा नौ वि वद्धा नेतरेतरत्राणाय भवति" (म०भा०पृ० ६६) ।।१२।। एक पदार्थ की सिद्धि दूसरे से, दूसरे की सिद्धि तीसरे से और तीसरे की सिद्धि प्रथम पदार्थ से मानने पर चक्रक दोष प्रसक्त होता है, तीसरे पदार्थ की सिद्धि प्रथम से न मानकर चतुर्थ से, चतुर्थादि की पञ्चमादि से मानी जाय, तब अनवस्था दोष होता है ।।१३।। गौरव और लाघव नाम के दोनों तर्कप्रकार सार्वत्रिक होते हैं । कल्पनाधिक्य को गौरव तथा अल्प कल्पना को लाघव कहते हैं ।।१४ ।। (जो मणिकण्ठ मिश्र ने कहा है -"कल्पनागौरवं न तर्केऽन्तर्भवति एवं कल्पनालाघवमपि, वैपरीत्यमेव तु दूषणम्" अर्थात् गौरव दोष होने पर भी तर्क का प्रकार नहीं और लाघव गुण हैं, दोष नहीं, इसके विपरीत अलाघव ही दोष होता है, वह अनिष्ट है, उसका प्रसञ्जन अनिष्ट-प्रसञ्जनरूप तर्क हो सकता
घव नहीं । (न्या०२०प०३६) । वह कहना उचित नहीं, क्योंकि) यद्यपि दोष-प्रसङ्गरूपता सीधे-सीधे गौरव दोष में ही होती है, तथापि साधनीय पदार्थ में निहित लाघवरूप गुण में भी अनिष्ट-प्रसङ्गता का उद्भावन हो सकता है-'यदि अयं लघुमार्गो नानुस्रियेत, तदा साध्यं न सिध्येत्' । अथवा साध्यगत गुण साध्याभाव का दोष होता है, अतः अनिष्टप्रसङ्गता का आपादन किया जा सकता है । वस्तुतः आनर्थक्यापत्ति होने पर लाघव भी दोष हो जाता है, जैसा कि न्यायसुधाकार का कहना है-“अत्राप्युपात्ते लघूपाये गुरुरूपाश्रयणानुपपत्तिमाशङ्कय आनर्थक्यापरिहारायोपात्तेऽपि लघौ गुरोराश्रयणम्" (न्या०सु०पृ० ५०-५१) । जहाँ पर कथित अनुकूल तर्क का प्रदर्शन होता है, वहाँ उसका फल साध्य-सिद्धि का अनुग्रह (पोषण) होता है और जहाँ पर साधनीय अर्थ का अनुवाद करके अनिष्ट-प्रसञ्जन का विधान किया जाय, वह तर्क प्रतिकूल होता है, क्योंकि उससे साध्य-सिद्धि का अनुग्रह नहीं, प्रत्युत निरोध होता है ।।१५-१७ ।।
उक्त तर्क व्याप्ति-ग्रहण या अनुमानोत्थान के समय साध्य और साधन की व्यभिचार-शङ्का को निरस्त कर व्याप्ति का अवदात स्वरूप निखारता हुआ अनुमान का अनुग्राहक होता है ।
शङ्का : 'यद्यत्रागिर्न स्यात्, तर्हि धूमोऽपि न स्यात्'-इस प्रकार के तर्क से व्यभिचार-शङ्का निवृत्त नहीं होती, क्योंकि 'अग्न्यभावेऽपि धूमः किं न स्यात्' -इस प्रकार की व्यभिचारशङ्का फिर भी हो जाती है ।
समाधान : तर्क के द्वारा व्यभिचार-शङ्का एक बार निवृत्त होकर फिर भी हो जाती है । अत एव तार्किकों ने कहा है कि, तब तक तर्क प्रयोग करते रहना चाहिए, जब तक प्रतिवादी के सामने कोई व्याघात उपस्थित नहीं होता । (श्री उदयनाचार्य ने कहा है - "व्याघातावधिराशङ्का" (न्या० कु० ३/७) । अर्थात् व्यभिचार-शङ्काओं की प्रवृत्ति तब तक हो सकती है, जब तक प्रतिवादी पर प्रवृत्त्याद्यनुपपत्तिरूप बाध अवतीर्ण नहीं होता । तर्क-प्रयोक्ता के द्वारा यद्यग्न्यभावेऽपि धूमः स्यात्, तर्हि कारणं विनापि कार्यं जायेत"-ऐसा प्रयोग करने पर प्रतिवादी यदि शङ्का करता है कि 'कारणं विनापि कार्यं कि न जायेत ?' तब इस शङ्का की निवृत्ति करने के लिए वादी व्याघात-तर्क प्रस्तुत करता है-'यदि कारणं विनाऽपि कार्यं स्यात्, तर्हि शब्दप्रयोगं विनापि अर्थबोधः स्यात्, शब्दोच्चारणे तव प्रवृत्तिर्न स्यात्'-इस व्याघात को सुनकर प्रतिवादी की शङ्काओं का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है) । किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि, “यद्यग्न्यभावेऽपि धूमः स्यात्, तदा कारणं विनापि कार्यजननमङ्गीकृतं स्यात्"-इस प्रकार का तर्क-प्रयोग हो जाने पर 'तदपि किं न स्यात्'-ऐसी शङ्का लौकिक व्यवहार में अङ्कुरित नहीं होती ।
शङ्का : उक्त तर्क का प्रयोग कर देने पर भी ‘अग्नि में धूम की कारणता का निर्णय कैसे होगा ?' ऐसी आशङ्का बनी ही रहती है, अतः न तो अग्न्यनुमान का उदय हो सकता है और न तर्क में उस की अनुग्राहकता सिद्ध होती है ।
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