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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
५७३/११९६ "ताश्चेन्द्रियानुसारेण जायन्ते पञ्च कल्पनाः । यदि त्वालोच्य सम्मील्य नेत्रे कश्चिद्विकल्पयेत् । प्रत्यक्षं नैव मन्यन्ते तल्लौकिकपरीक्षकाः ।।
नाम, जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य (अवयवी) नाम की पाँच कल्पनाएँ इन्द्रियों के अनुसार ही उत्पन्न होती हैं । यदि आलोचनारूप निर्विकल्पात्मक ज्ञान के अनन्तर नेत्रों को बन्द करके (नेत्र-व्यापार समाप्त करके) कोई व्यक्ति सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न करता, तब अवश्य ही उसे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं माना जा सकता था, किन्तु ऐसा न तो लौकिक (शिक्षार्थी) पुरुष स्वीकार करते हैं और न परीक्षक (शिक्षक) व्यक्ति, अतः सव्यापार इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण सविकल्पक भी प्रत्यक्ष ज्ञान ही है । दूसरी बात यह भी है कि यदि परम्परया इन्द्रिय-जन्य होने के कारण सविकल्पक को प्रत्यक्षपदास्पद माना जाता है, तब अनुमान में भी प्रत्यक्ष' शब्द की वाच्यत्वापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि 'प्रत्यक्ष पद केवल (अक्षमक्षं प्रति वर्तते-इस व्युत्पत्ति के अनुसार) यौगिक नहीं माना जाता, अपि तु जैसे पङ्कजादि पद ('पङ्काज्जातः'-इस व्युत्पत्ति के आधार पर पङ्कोत्पन्न कमदिनी आदि वस्त मात्र को न कह कर पङ्कजात कमल में रूढ होकर) योगरूढ माना जाता है, वैसे ही प्रत्यक्ष शब्द इन्द्रिय-जन्य निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञान में रूढ होकर योगरूढ है, अनुमान का वाचक कथमपि नहीं हो सकता ।
आचार्य प्रभाकर का जो कहना है कि, पङ्कजादि शब्द कमलादि में रूढ नहीं, अपितु यौगिक मात्र हैं, क्योंकि अवयवार्थ के द्वारा ही उनकी कमलादि में प्रवृत्ति होती है, कुमुदिनी आदि की उनमें वाचकता न होने का कारण यह है कि उनमें 'पङ्कज' पद का कहीं प्रयोग नहीं होता । उसी प्रकार ‘प्रत्यक्ष' शब्द भी योगरूढ न होकर केवल अवयव-शक्ति के द्वारा ऐन्द्रियक सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञान मात्र का बोधक होता है ।
श्री प्रभाकर का वह कहना असंगत है, क्योंकि यदि केवल अवयवार्थ को लेकर 'पङ्कज' शब्द कमल का बोधक माना जाता है, तब कुमुदादि में भी अवयवार्थत्व (पङ्कज-जन्यत्व) विद्यमान होने के कारण कुमुदादि का भी वह बोधक क्यों नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में रूढि को भी 'पङ्कज' पदप्रवृत्ति की सामग्री मानना होगा । योगार्थ का भी परित्याग नहीं किया जा सकता, अतः योग और रूढि-दोनों शक्तियों के द्वारा 'पङ्कज' पद के समान ही प्रत्यक्ष' पद की प्रवृत्ति सिद्ध होती है, जैसा कि वार्तिककार कहते हैं - "निर्विकल्पकबोधेऽपि नाक्षं केवलकारणम् । तत्पारम्पर्यजाते वा रूढि: स्यात् पङ्कजादिवत् ।।" (श्लो० वा० पृ० १७५) फलतः उक्त निर्विकल्पक और सविकल्पकरूप प्रत्यक्षों में ही प्रत्यक्ष' पद की वाच्यता सिद्ध होती है, परम्परया अक्ष-जन्य अनमानादि में नहीं ।
सविकल्पक के द्वारा (१) द्रव्य, (२) जाति, (३) गुण, (४) कर्म और (५) नाम- इन पाँच विकल्पों का प्रत्यक्ष होता है, जैसे-(१) 'यह बंशीधर है', (२) 'यह गोप जाति का है', (३) 'यह श्याम वर्ण का है', (४) 'यह रसिया गा रहा है' तथा (५) 'यह गोविन्दनामा है ।'
कतिपय विद्वानों का जो कहना है कि, प्रत्यभिज्ञारूप प्रत्यक्ष छट्ठा विकल्प है । उनका वह कहना युक्ति-संगत नहीं, क्योंकि वह नाम-कल्पना के अन्तर्गत आ जाता है, क्योंकि संज्ञा शब्द के द्वारा स्मारित पिण्ड में 'यह वही है' - इस प्रकार पूर्वरूप-विशिष्टतया पदार्थ की कल्पना को ही नाम-कल्पना कहा जाता है, अतः ‘गोविन्दोऽयम्' - इसका यही अर्थ होता है कि जिस लावण्यमय विग्रह को हमने गोविन्दपद-वाच्यत्वेन निश्चित किया था, 'यह वही है' । जब नामास्पदता (शब्द-वाच्यता) को माध्यम न बनाकर पूर्व-दृष्ट विग्रह की सम्मुखस्थ विग्रह से एकता की अनुभूति होती है, तब ‘स एवायम्' - इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा नाम-कल्पना के रूपान्तर में स्पष्ट हो जाती है । वार्तिककार कहते हैं -
"तत्र शब्दार्थसम्बन्धं प्रमातुः स्मरतोऽपि या । बुद्धिः पूर्वगृहीतार्थसन्धानादुपजायते ।।" (श्लो० वा० पृ० २०२)
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