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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६
वह वैयाकरण-मत अयुक्त है, क्योंकि यदि शब्दानुवेध के बिना पहले शुद्धवस्तु का भान नहीं होता, तब शब्दस्मरण कैसे होगा ? क्योंकि वस्तु को देख कर ही उसके वाचक शब्द का स्मरण होता है ।
बौद्धों का जो कहना है कि, निर्विकल्पक वस्तु का ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण होता है और सविकल्पक-ज्ञान न तो प्रमाण होता है और न प्रत्यक्ष । (श्री धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण किया है - "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्" (न्या०बि०पृ० ४०) किन्तु आचार्य दिङ्नाग ने वहाँ ‘अभ्रान्त' पद नहीं जोडा था, उनका आशय था कि सविकल्पक ज्ञान भ्रमात्मक होता है, अतः निर्विकल्पक कह देने मात्र से अभ्रान्तत्व का लाभ हो जाता है । श्री दिङ्नाग के गुरुवर आचार्य वसुबन्धु ने विकल्प को वितथ ही माना है-"वितथविकल्पाभ्यासवासनानिद्रया प्रसुप्तो लोकः" (वि०मा०पृ० ६३) । यद्यपि अनुमान ज्ञान भी जाति विकल्प को विषय करने के कारण भ्रम ज्ञान ही है, तथापि व्यवहारतः अविसंवादी होने के कारण प्रमाण माना जाता है, श्री कमलशील ने स्पष्ट कहा है कि,-"यत्र तु पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धः, तवार्थाविसंवादो भ्रान्तत्वेऽपि" (त०सं०पृ० ३३८)
बौद्धों का वह कहना सर्वथा अयुक्त है, क्योंकि लोक में 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि सविकल्प ज्ञानों को प्रत्यक्ष प्रमाण माना जाता है, अतः उसका निषेध करने पर लोक-विरोध होता है, (जैसा कि श्री कुमारिल भट्टने कहा है- ततः परं पुनर्वस्तु धर्मेर्जात्यादिभिर्यया । बुद्ध्याऽवसीयते साऽपि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ।। (श्लो० वा० पृ० १७२)
अर्थात् निर्विकल्पक ज्ञान के अनन्तर नाम, जात्यादि विकल्पों से युक्त वस्तु जिस सविकल्पक बुद्धि के द्वारा निश्चित होती है, वह सविकल्पक बुद्धि भी लोक में प्रत्यक्ष प्रमाण मानी जाती है) । दूसरी बात यह भी है कि, सविकल्पक ज्ञान के अनन्तर ही अर्थक्रिया (प्रवृत्ति की सफलता) देखी जाती है, अतः अर्थक्रियाकारित्वरूप प्रमाणत्व उसमें अटल है। ___ शङ्का : सविकल्पक ज्ञान में अर्थक्रियाकारित्व स्वाभाविक नहीं माना जाता, अपि तु दैवात् आ जाता है, क्योंकि वह विषय से बहुत दूर नहीं होता, जैसा कि आचार्य धर्मकीर्ति ने कहा है कि- “मणिप्रदीपप्रभयोर्मणिबुद्ध्याभिधावतोः । मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ।।" (प्र० वा० ३/५७) एक व्यक्ति मणि की प्रभा को मणि समझकर मणि उठाने दौडा और दूसरा व्यक्ति प्रदीप की प्रभा को मणि समझकर दौडा । यद्यपि वे दोनों भ्रान्त हैं, उनके मिथ्या ज्ञानों में कोई अन्तर नहीं, तथापि उनमें से पहले की प्रवृत्ति सफल हो जाती है कि मणि-प्रभा के समीप ही मणि मिल जाती है किन्तु दूसरे का प्रयत्न अत्यन्त निष्फल जाता है । वस्तुतः यह सविकल्पक ज्ञान अवस्तुभूत नाम, जात्यादि को विषय करने के कारण मिथ्या ही होता है ।
समाधान : यदि सविकल्पक ज्ञान मिथ्या है, तब बौद्ध-सम्मत अनुमान प्रमाण भी अप्रमाण हो जायगा, क्योंकि वह अवस्तुभूत वह्नित्व सामान्य को ही विषय करता है । नाम, जात्यादि पदार्थों को जो खपुष्पादि के समान अवस्तु माना जाता है, वह भी संगत नहीं, क्योंकि उनमें वस्तुत्व सिद्ध किया जायगा, अतः सविकल्पक ज्ञान प्रमाण ही है ।
शङ्का : फिर भी सविकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह साक्षात् इन्द्रिय से जन्य नहीं, अपि तु इन्द्रिय-जन्य निर्विकल्पक ज्ञान के द्वारा जनित होता है । इसी प्रकार के परम्परया अक्ष-जन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानने पर अनुमानादि ज्ञानों को भी प्रत्यक्ष ही मानना होगा । ___समाधान : सविकल्पक ज्ञान की उत्पत्ति-पर्यन्त इन्द्रिय का व्यापार निवृत्त नहीं होता, अपितु बना रहता है, अतः सविकल्पक ज्ञान भी निर्विकल्प के समान ही साक्षात् इन्द्रिय-जन्य माना जाता है, जैसा कि आचार्यों ने कहा है
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