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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ है, क्योंकि 'न हिंस्यात् सर्वा भूतानि' - इत्यादि निषेध वाक्यों के द्वारा बाह्य हिंसा निषिद्ध होती है, अतः 'निषिद्धत्व' में रहनेवाली अधर्मत्व-व्याप्ति को लेकर प्रयुक्त हिंसात्व हेतु अग्नीषोमीय-हिंसा में अधर्मत्व का साधक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें निषिद्धत्व नहीं, अपितु “अग्नीषोमीय पशुमालभेत" - इस विधि वाक्य के द्वारा विहितत्व रहता है ।
उपाधि का लक्षण चिदानन्द पण्डित ने किया है - "सर्वत्र साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्याप्तत्वम्" (नीति पृ. १३९) । 'निषिद्धत्व' धर्म साधनभूत हिंसात्व का अव्यापक हैं, क्योंकि यत्र-यत्र हिंसात्वम्, तत्र-तत्र निषिद्धत्वम्' इस प्रकार की व्यापकता अग्नीषोमीय-हिंसा में न रहने के कारण) निषिद्धत्व में नहीं रहती और साध्यभूत अधर्मत्व की
व्याप्ति निषिद्धत्व में रहती है, अतः निषिद्धत्व में उक्त उपाधि का लक्षण घट जाता है । 'पर्वतोऽग्निमान, धूमवत्त्वात्' - इस सद्धेतु में तत्सामाग्रीकत्व, महानसत्व और पर्वतान्यत्व धर्म उपाधि न बन जायें इस लिए उक्त उपाधि-लक्षण में 'साधनाव्यापकत्व', 'साध्यव्यापकत्व' और व्याप्तिगत समत्व' ये तीन विशेषण लगाए गए हैं । यदि 'साध्यसमव्याप्त उपाधिः' - इतना ही लक्षण किया जाता, तब अग्नि-साधक धम हेत् में 'अग्निसामग्रीकत्व' धर्म उपाधि हो जाता. क्योंकि यत्र यत्र अग्निमत्त्वम्, तत्र तत्र अग्निसामग्रीयुक्तत्वम् । यत्र यत्र अग्निसामग्रीवत्वम् तत्र तत्र अग्निमत्त्वम् इस प्रकार का साध्यसमव्याप्तत्व घट जाता है) । उसकी निवृत्ति के लिए साधनाव्यापकत्व कहा है । साधनाव्यापकत्व अग्निसामग्रीकत्व में नहीं है, क्योंकि जहाँ-जहाँ धूम रहता है, वहाँ-वहाँ अवश्य ही अग्नि और अग्नि की सामग्री रहती है, अतः उसमें धूम की व्यापकता ही है, अव्यापकता नहीं । यदि 'साधनाव्यापक उपाधिः' इतना ही कहते तब उसी हेतु में 'महानसत्व' धर्म उपाधि हो जाता, क्योंकि धूम के रहने पर सर्वत्र महानसत्व रहता ही है - ऐसा नहीं, अतः वह साधन का अव्यापक है । उसकी व्यावृत्ति के लिए साध्य-व्यापकत्व कहना आवश्यक है, महानसत्व में अग्निरूप साध्य का व्यापकत्व नहीं रहता, क्योंकि मठादि में अग्नि का सद्भाव होने पर भी महानसत्व का अभाव होता है । यदि 'साधनाव्यापकत्वे सति साध्यव्यापक उपाधिः'- इतना ही कहते, तब 'पर्वत-भिन्नत्व' धर्म युक्त हेतु में उपाधि हो जाता, क्योंकि पर्वत-भिन्नत्व के न रहने पर भी पर्वत में धूम देखा जाता है, अतः वह साधन का अव्यापक है और अग्निरूप साध्य का व्यापक भी, क्योंकि पर्वत में तो अग्नि का सन्देह ही है, निश्चय नहीं, अग्नि का जहाँ-जहाँ महानसादि में निश्चय है, वहाँ-वहाँ सर्वत्र पर्वत-भिन्नत्व है । पर्वत-भिन्नत्व की निवृत्ति के लिए केवल साध्य-व्यापकत्व न कह कर साध्य-समव्यापकत्व कहा गया है । समव्यापकत्व का अर्थ होता है - 'व्यापकत्वे सति व्याप्यत्व ।' पर्वत-भिन्नत्व में अग्नि का व्यापकत्व रहने पर भी 'यत्र-तत्र पर्वत-भिन्नत्वम्, तत्र-तत्र अग्निमत्त्वम्' - इस प्रकार पर्वत-भिन्नत्व में अग्नि की व्याप्यता या अग्नि में पर्वतभिन्नत्व की व्यापकता नहीं रहती, क्योंकि पर्वत से भिन्न सर्वत्र जलाशयादि में (अग्नि का सद्भाव नहीं है।) ___ अथवा उक्त उपाधि-लक्षण-घटक पदों का प्रयोजन अन्य स्थल पर तार्किक रक्षा (पृ० ६६-६७) के अनुसार इस प्रकार दिखना चाहिए - यदि साध्य के समव्याप्त धर्म को ही उपाधि माना जाय, तब 'शब्दोऽनित्यः, जन्यत्वाद्, घटवत्' यहाँ पर 'सकर्तृकत्व' धर्म उपाधि बन जाता, क्योंकि अनित्यत्व और सकर्तृकत्व की समव्याप्ति लोक-प्रसिद्ध है, अतः सकर्तृकत्व की व्यावृति करने के लिए कहा-'साधनाव्यापकः' । 'सकर्तृकत्व' धर्म साधनभूत जन्यत्व का भी व्यापक ही है, अव्यापक नहीं, फलतः साधन का व्यापक होने के कारण उक्त स्थल पर 'सकर्तृकत्व' उपाधि नहीं बन सकता । 'साधनाव्यापक उपाधि:'-इतना ही कहने पर वहीं पर 'सावयवत्व' और 'घटत्वादि' धर्म उपाधि हो जाते, क्योंकि 'जन्यत्व' धर्म तो गुण और कर्मादि में भी रहता है, किन्तु वहाँ न सावयवत्व रहता है और न घटत्वादि, अत: सावयवत्वादि में साधनाव्यापकत्व निश्चित है । उनकी निवृत्ति करने के लिए साध्य-व्यापकत्व का भी उपाधि के लक्षण में समावेश करना होगा । सावयवत्व और घटत्वादि में साध्यभूत अनित्यत्व की व्यापकता नहीं रहती, क्योंकि गुण और क्रियादि में अनित्यत्व के रहने पर भी सावयवत्वादि नहीं रहते । तथापि शब्देतरत्व अनित्यत्व का व्यापक होने से उपाधि
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