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निक्षेपयोजन
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प्रकार के हो जाते हैं । ये समस्त परिणाम सदा जीव में नहीं होते परंतु कोई न कोई परिणाम अवश्य रहता है । चैतन्य आत्मा का असाधारण स्वरूप है उससे रहित आत्मा कभी नहीं होता । अग्नि जिस प्रकार उष्णता से रहित नहीं होता इस प्रकार जीव कभी चैतन्य से रहित नहीं होता । कर्म के कारण ज्ञान के परिणाम अनेक प्रकार के होते रहते हैं, इन परिणामों से युक्त जीव भावजीव है । इस प्रकार जीव के विषय में नाम स्थापना और भाव ये तीन निक्षेप हो सकते हैं-परन्तु द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता। जीव के विषय में द्रव्य निक्षेप के निषेध का रहस्य बताते हुए आगे बताते है कि,
अयं हि तदा सम्भवेत्, यद्यजीवः सन्नायत्यां जीवोऽभविष्यत् यथाऽदेव: सन्नायत्यां देवो भविष्यत् (न्) द्रव्यदेव इति । न चैतदिष्टं सिद्धान्ते, यतो जीवत्वमनादिनिधनः पारिणामिको भाव इष्यत इति ।
अर्थ : यह तब हो सकता था, यदि अजीव होता हुआ कोई अर्थ भावी काल में जीव हो जाता । जिस प्रकार जो देव नहीं है वह देव होने वाला हो तो द्रव्यदेव कहा जाता है परन्तु यह सिद्धान्त में इष्ट नहीं है, क्योंकि, जीवत्व आदि और अन्त से रहित पारिणामिक भाव माना जाता है ।
कहने का सार यह है कि, वर्तमान काल में जो पर्याय है उसका कारण स्वरूप अर्थ, द्रव्य कहा जाता है । घट वर्तमान काल का परिणाम है । मृत्पिंड इसका कारण है, वह घट के रूप में नहीं है इसलिए द्रव्य घट कहा जाता है । यदि कोई जीवभिन्न अर्थ अन्य काल में जीव रूप से परिणाम को प्राप्त हो सके, तो कारण होने से उसको द्रव्य जीव कहा जा सकता है । परन्तु जीव न उत्पन्न होता है न नष्ट होता है । जो अर्थ जीव से भिन्न चेतनाशून्य है वह कभी जीव स्वरूप को नहीं प्राप्त करता । जो अभी मनुष्य है परन्तु पीछे कभी देवरूप में होगा वह मनुष्य होता हुआ भी द्रव्य देव है । परन्तु अजीव और जीव का परस्पर कार्य-कारण मात्र नहीं है, इसलिए कोई भी अर्थ द्रव्य जीव नहीं हो सकता । अब इस विषय में अन्य मत को उपस्थित करके उसका खंडन करते हुए आगे बताते है कि,
तथापि गुणपर्यायवियुक्तत्वेन बुद्ध्या कल्पितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो द्रव्यजीवः, शून्योऽयं भङ्ग इति यावत्, सतां गुणपर्यायाणां बुद्ध्यापनयस्य कर्तुमशक्यत्वात् न खलु ज्ञानायत्तार्थपरिणतिः किन्तु अर्थो यथा यथ विपरिणमते तथा तथा ज्ञानं प्रादुरस्तीति । [ - यहाँ पर " सतां गुणपर्यायाणां" से पहले "शून्योऽयं भंग इति यावत्" इतना पाठ नहीं होना चाहिए किन्तु " द्रव्यजीवः " इसके अनन्तर " इति केचित् तन्न" इतना पाठ होना चाहिए । “ तथा तथा ज्ञानं प्रादुरस्तीति" इसके अनन्तर "शून्योऽयं भंग इति यावत्" इतना पाठ होना चाहिए। इस प्रकार पाठ को मानने पर अर्थ इस प्रकार होगा - ]
अर्थ : तो भी गुण और पर्याय से रहित रूप में बुद्धि के द्वारा कल्पित किआ हुआ अनादि पारिणामिक भाव से युक्त द्रव्य जीव है । यह मत युक्त नहीं, जो गुण और पर्याय विद्यमान हैं उनको कल्पना से नहीं हटाया जा सकता । पदार्थ का परिणाम ज्ञान के अधीन नहीं है, किन्तु अर्थ जिस जिस रूप से परिणाम को प्राप्त करता है, उस उस रूप से ज्ञान प्रकट होता है ।
कहने का सार यह है कि, द्रव्य का गुण और पर्यायों के साथ जो सम्बन्ध है, वह किसी काल में दूर नहीं होता परन्तु उसकी कल्पना की जा सकती है । वस्तु का जो स्वरूप है उसके विरुद्ध अर्थ सत्य रूप में नहीं हो सकता परन्तु कल्पना के द्वारा न्यून और अधिक परिणाम में वह विरुद्ध किया जा सकता है । एक मनुष्य जब तक मनुष्य है तब तक उसके शरीर पर सिंह का सिर नहीं है, परन्तु सिंह के सिरवाले मनुष्य की कल्पना हो सकती है । इसी प्रकार मनुष्य के शरीर
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