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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ स्थापना रूप एक धर्म के प्रवेश का उपपादन सरलता से हो सकता है । स्थापना सामान्य और स्थापना विशेष मान लेने से संग्रह और व्यवहार का भेद संगत हो सकता है, इस रीति से आगम के अनुसार विचार करना चाहिए ।
कहने का मतलब यह है कि, नैगम दो प्रकार का है । एक केवल सामान्य का प्रतिपादन करता है और दूसरा केवल विशेष का । सामान्यवादी नैगम का संग्रह में और विशेषवादी नैगम का व्यवहार में अन्तर्भाव है, इस कारण स्थापना का स्वीकार रूप जो नैगम का मत है, वह भी संग्रह और व्यवहार का सिद्ध हो जाता है । परिपूर्ण नैगम का विषय सामान्य भी है और विशेष भी, इन दोनों का प्रवेश अकेले संग्रह और अकेले व्यवहार में नहीं हो सकता, परन्तु स्थापनारूप धर्म का प्रवेश दोनों में हो सकता है । सामान्य और विशेषरूप दोनों स्थापनाओं का स्वीकार परिपूर्ण नैगम में है । संग्रह केवल सामान्य को और विशेष को केवल व्यवहार स्वीकार करता है । इसलिए दोनों को अकेला संग्रह और अकेला व्यवहार यद्यपि स्वीकार नहीं कर सकता, पर स्थापना के स्वीकार रूप धर्म को दोनों स्वीकार कर सकते हैं । सामान्य स्थापना जिस प्रकार स्थापना है, इस प्रकार विशेष स्थापना भी स्थापना है, इसलिए स्थापना का स्वीकार नैगम के समान संग्रह और व्यवहार में भी समान रूप से है ।
यदि आप कहें कि, यदि दोनों स्थापना को स्वीकार करते हैं, तो इस विषय में संग्रह और व्यवहार का भेद नहीं रहेगा । तो यह शंका युक्त नहीं है, सामान्य स्थापना को स्वीकार करना संग्रह का और विशेष स्थापना को स्वीकार करना व्यवहार का असाधारण धर्म है, अतः दोनों का भेद भी है।
जीव के विषय में निक्षेप :
एतैश्च नामादिनिक्षेपैर्जीवादयः पदार्था निक्षेप्याः ।
अर्थ : इन नाम आदि निक्षेपों के द्वारा जीव आदि पदार्थों का निक्षेप करना चाहिए ।
तत्र यद्यपि यस्य जीवास्याजीवस्य वा जीव इति नाम क्रियते स नामजीवः, देवतादिप्रतिमा च स्थापनाजीव:, औपशमिकादिभावशाली भावजीव इति जीवविषयं निक्षेप त्र्यं सम्भवति, न तु द्रव्यनिक्षेपः ।
अर्थ : जिस जीव अथवा अजीव का 'जीव' यह नाम कर दिया जाता है वह नाम जीव है । देवता आदि की प्रतिमा स्थापना जीव है, औपशमिक आदि भावों से जो युक्त है वह भाव जीव है, इस प्रकार जीव के विषय में तीन निक्षेप हो सकते है, पर द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता ।
कहने का आशय यह है कि, चेतन अथवा अचेतन अर्थ को जीव नाम दिया जाय तो वह नाम जीव है। मनुष्य आदि जीवों के भेद हैं, वे सब सामान्य रूप से जीव हैं। वे सब जीव जीवन से युक्त हैं । इनका जब जीव नाम है तब वह वाच्य अर्थ से युक्त होता है । जब अचेतन काष्ठ आदि का जीव नाम धर दिया जाता है तब वह जीवन रूप वाच्य अर्थ से रहित होता है, इस दशा में यह नाम ही जीव है । जब किसी अचेतन वस्तु का जीव नाम रख दिया जाता है तब वह अचेतन, नाम जीव कही जाती है । जिस प्रकार स्वर्ग के अधिपति इन्द्र से भिन्न गोपाल का बालक नाम से इन्द्र कहा जाता है, इस प्रकार जीव से भिन्न अचेतन अर्थ नाम से जीव कहा जाता है । देवता, मनुष्य आदि की प्रतिमा का स्थापन जीव बुद्धि से किया जाय तो वह प्रतिमा 'स्थापना जीव' कहा जाता है । देवता और मनुष्य शरीरधारी हैं, इस दशा में शरीर का जो आकार है वह आकार आकाररहित जीव का भी मान लिया जाता है । इन्द्र की प्रतिमा इन्द्र की बुद्धि से बनाई जाती है और वह स्थापना इन्द्र कहलाती है । इस प्रकार जीव की कोई प्रतिमा बनाई जाय और उसमें जीव बुद्धि का स्थापन किया जाय तो वह प्रतिमा, देवता की हो वा मनुष्य आदि की स्थापना जीव है । औपशमिक आदि भावों से युक्त जीव भावजीव है । जीव ज्ञान स्वरूप है, कर्म पुद्गलों के उपशम आदि के कारण ज्ञान के परिणाम भन्न
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