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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६
मयोपलब्ध" इत्यनुभवात् । अरूपस्याप्याकाशवत् प्रत्यक्षत्वं भविष्यति, न हि रूपिप्रत्यक्षमित्यस्माकं प्रत्यक्षलक्षणं किन्तु संविदेव परोक्षापरोक्षनिर्भासा जायमाना 'इदं प्रत्यक्षम्', 'इदमप्रत्यक्षम् इति विभजते' (सि.च. पृ. ४५४६) । अर्थात् ज्ञानगत परोक्षत्वापरोक्षत्व का नियामक विषय नहीं माना जाता, अपि तु ज्ञान ही विषयगत परोक्षत्वापरोक्षत्व का व्यवस्थापक होता है और प्रत्यक्षत्वादि को ज्ञान का अपना स्वभाव माना जाता है ] ।
शङ्का : काल का स्वतः भेद नहीं, अपितु औपाधिक भेद माना जाता है, अतः यह यहाँ जिज्ञासा होती है कि धारावाहिक ज्ञानों के विषयीभूत क्षणभेदों की नियामिका उपाधि क्या है ?
समाधान : प्रथम ज्ञान से जनित विषयगत प्राकट्य या ज्ञातता रूप धर्म द्वितीय ज्ञान - पर्यन्त एवं द्वितीयादि ज्ञानों से जनित ज्ञातत्व धर्म तृतीयादि ज्ञानों के होने तक अवस्थित रहते हैं, उन्हीं प्रत्यक्षभूत प्राकट्यरूप उपाधियों से अवच्छिन्न काल-खण्ड (क्षण) धारावाहिक ज्ञानों के द्वारा गृहीत होते हैं । 'प्राकट्यरूप धर्म सूक्ष्म होते हैं, अतः उनसे अवच्छिन्न काल-खण्ड (क्षण) भी सूक्ष्म होने के कारण धारावाहिक ज्ञानों के द्वारा गृहीत क्योंकर होंगे ?' - ऐसा सन्देह करना उचित नहीं, क्योंकि प्राकट्यात्मक धर्मों एवं उनसे अवच्छिन्न काल खण्डों को यदि सूक्ष्म माना जाता है, तब अनेक क्षणों में ‘अयम्’, ‘अयम्’, - इस प्रकार अनेक क्षणों से विशिष्ट घट में अनेककालवर्तित्व का भान न होकर यौगपद्य या ऐककालिकत्व का वैसे ही अभिमान होना चाहिए, जैसे कमल-दल की सैकड़ों तहों का सुई के द्वारा भेदन करने पर सूक्ष्म काल-भेद का भान न होकर भेदन में यौगपद्य का अभिमान होता है - 'कमलदलशतं सूच्या युगपद्विद्धम्' । किन्तु इसके विपरीत धारावाहिक ज्ञान-स्थल पर घटादि के ग्रहण में यौगपद्य का भान न होकर क्रमिकत्व का भान होता है, अतः न तो प्राकट्यरूप धर्म सूक्ष्म होते हैं और न उनसे अवच्छिन्न काल-खण्ड । (१) प्राकट्यरूप धर्म और (२) काल की प्रत्यक्षता- इन दोनों की सिद्धि आगे चलकर की जायगी, अतः इनके अभाव का सन्देह नहीं करना चाहिए । 'प्रमा चाज्ञाततत्त्वार्थज्ञानम्' इस लक्षण में 'तत्त्व' पद के द्वारा भ्रम और संशयादि अप्रमा ज्ञानों की निवृत्ति की जाती है, क्योंकि 'तत्त्व' शब्द का अर्थ 'यथार्थ' है और भ्रमादि यथार्थ नहीं होते, अपि तु शुक्तिरूप अर्थ के विपरीत रजतरूप अर्थ के प्रकाशक होते हैं । (भ्रमस्थल पर भाट्टगण विपरीत या अन्यथाख्याति मानते हैं - यह आगे कहा जायेगा ) ।
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प्रभाकर - मतानुयायी आचार्यों का जो कहना है कि, उक्त लक्षण में अयथार्थ ज्ञान का व्यावर्त्तक 'तत्त्व' पद व्यर्थ है, क्योंकि ‘अयथार्थ ज्ञान' नाम की वस्तु ही लोक में प्रसिद्ध नहीं है। 'इदं रजतम्' - इत्यादि स्थलों पर उनका मत है कि ‘इदम्' - इस प्रकार उस शुक्ति दल का प्रत्यक्ष होता है, जिसके नीलपृष्ठत्वादि विशेष भाग का भान नहीं होता और 'रजतम्' इस प्रकार रजतमात्र का स्मरण ज्ञान होता है । वहाँ न तो शुक्ति एवं रजत का भेद गृहीत होता है और न उनके प्रत्यक्ष एवं स्मरणरूप ज्ञानों का । फलतः रजतार्थी व्यक्ति की वहाँ केवल प्रवृत्ति हो जाती है, शुक्ति का रजतत्वेन भान नहीं होता (प्रत्यक्ष ज्ञान केवल शुक्ति सामान्य और स्मरणात्मक ज्ञान केवल रजत का ही भासक होता है, इन दोनों ज्ञानों में से कोई भी ज्ञान शुक्तिरूप इदमर्थ का रजतरूपेण भासक नहीं माना जाता, अतः भ्रम नहीं कहलाता, क्योंकि शुक्त्यादि अन्य पदार्थों का रजतत्वादि अन्य प्रकार से भासक विशिष्ट ज्ञान ही भ्रम कहलाता है) ।
प्राभाकर गणों का वह कहना सङ्गत नहीं, क्योंकि प्रत्येक ज्ञान अपने विषयीभूत पदार्थ में प्रवर्तक होता है, रजत-ज्ञान भी इदमर्थरूप शुक्ति की ओर रजतार्थी का तभी प्रवर्तक हो सकता है, जब कि शक्ति को विषय करले, अन्यथा उसके द्वारा शुक्ति-खण्ड में रजताभिलाषी व्यक्ति की प्रवृत्ति सिद्ध नहीं हो सकती । दूसरी बात यह भी है कि जब तक शुक्ति और रजत की अभेद-प्रतीति न हो, तब तक 'इदमेव रजतम्' - इस प्रकार का सामानाधिकरण्य-निर्देश नहीं हो
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