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मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्)
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कोई भी कार्य अपने कारण के बिना उत्पन्न नहीं होता, अतः रूपविषयक ज्ञानात्मक कार्य के द्वारा सामान्यतः चक्षुः इन्द्रिय की सिद्धि हो जाने पर लोक में दीपादि तैजस पदार्थ ही रूपविषयक ज्ञान के जनक होते देखे जाते हैं, अतः उस चक्षु में तैजसत्व की सहज कल्पना हो जाती है । उसी प्रकार रस ज्ञान की उपपत्ति के लिए जलीय रसना इन्द्रिय की कल्पना की जाती है, क्योंकि सूखे पदार्थों का रस तब तक नहीं आता, जब तक उन्हें पानी से गीला कर न चबाया जाय, फलतः जल में ही रस- व्यञ्जकत्व निर्णीत होता है । चन्दन- खण्ड पर निम्बत्वक् (नीम वृक्ष की छाल) का लेप कर देने पर चन्दन की गन्ध अभिव्यक्त हो जाती है, चन्दन- त्वक् पार्थिव है, अतः गन्ध-ग्रहणार्थ कल्प्यमान घ्राण इन्द्रिय को पार्थिव मानना पडता है । शरीर से लगे जल-कणों का शीत स्पर्श पंखे की हवा से उजागर हो जाता है, अतः स्पर्शोपलम्भक त्वक् इन्द्रिय वायवीय सिद्ध होती है । शब्द-ग्राहकत्वेन कल्प्यमान श्रोत्र को पार्थिवादि न मान सकने के कारण परिशेषतः आकाशरूप मानना पडता क्योंकि प्रत्येक भूत द्रव्य किसी एक ही ज्ञानेन्द्रिय का आरम्भक होता है, उससे अन्य ज्ञानेन्द्रिय का नहीं, तेज, पृथिवी, जल और वायु- ये चारों भूत अपने-अपने नियत चक्षु, घ्राण, रसन और त्वक् के जनक होते हैं, श्रोत्र के आरम्भक नहीं हो सकते, परिशेषतः आकाश को ही श्रोत्र मानना पडता है। तार्किक गण जो शब्द को आकाश का
मानकर श्रोत्र में आकाशात्मत्व सिद्ध करते हैं । उनका वह साधन प्रकार युक्त नहीं, क्योंकि शब्द में गुणत्व ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि शब्द की गतिशीलता उसे द्रव्य सिद्ध करती है ।
सुखादि के अपरोक्ष-साधनत्वेन मन की कल्पना की जाती है । उसमें विभुत्व की सिद्धि आगे की जायगी । वह व्यापक होने पर भी शरीरावच्छिन्न होकर इन्द्रिय कहलाता है, अतः शरीर के अन्दर ही अपना कार्य करता है । चक्षुरादि इन्द्रियों के अधीन होकर मन रूपादि के ग्रहण में भी प्रवृत्त हो जाता है । इतना ही नहीं लिङ्गादि की सहायता से अनुमानादि ज्ञानों का उत्पादन भी करता है ।
चक्षु
और श्रोत्र- इन दो इन्द्रियों की प्राप्यकारिता में विवाद है, अतः उन दोनों में बाह्येन्द्रियत्वरूप हेतु के द्वारा त्वगिन्द्रिय के समान प्राप्यकारित्व का अनुमान कर लेना चाहिए ।।७।। ( प्राप्यकारित्व का अर्थ होता है
अपने विषय से जुडकर इन्द्रियों की विषय- ग्राहकता । विषय और इन्द्रिय का जोड-मेल दो प्रकार से होता है- (१) विषय-देश पर इन्द्रिय पहुँचे या (२) इन्द्रिय देश पर विषय पहुँचे । चक्षु तैजस होने के कारण स्वयं विषय- देश पर वैसे ही पहुँच जाता है, जैसे दीप-प्रभा घटादि पर फैल जाती है । श्रोत्र को नैयायिक गतिशील नहीं मानते, अतः जो शब्द श्रोत्र देश से जा टकराता है, उसका ही वह ग्रहण करता है । इन्द्रियों को बौद्धगण अप्राप्यकारी और नैयायिकादि प्राप्यकारी मानते हैं । न्याय के सूत्र, भाष्य और वार्तिकादि में विशदरूप से इसका वर्णन किया है और प्रमाणवार्तिकादि में बौद्धमत विस्तार से वर्णित है) । चक्षु विषय देश पर जाता तो है ही इसकी एक ओर विशेषता यह है कि अपने उद्गम स्थल से जैसे-जैसे दूर जाता है, वैसे-वैसे फैलता जाता है, यहाँ तक कि दूर से समूचे विशाल पर्वत का ग्रहण कर लेता है, समीप से नहीं, अतः यह वैसे ही पृथ्वग्र माना जाता है, जैसे तेजोद्रव्य का अपना स्वभाव है कि उसकी किरणें आगे-आगे सभी दिशाओं में फैलती जाती है । पलक खुलते ही चक्षु अत्यन्त दूरस्थ गुरु, शुक्र और शनैश्चरादि ग्रहों का भी तुरन्त ग्रहण कर लेता है, अतः यह भी मानना पडेगा कि ग्रह-व्यापी बाह्य तेज के साथ चाक्षुष तेज शीघ्र अपना तादात्म्य स्थापित कर दूरस्थ ग्रहादि का तत्काल भासक हो जाता है । 'बाह्य तेज तो विश्व व्याप्त है, अतः उससे चाक्षुष तेज का एकीभाव मान लेने पर समस्त विश्व का दर्शन होना चाहिए, फिर तो केरल प्रान्त से ही हरिद्वारस्थ गङ्गा का दर्शन क्यों नहीं होता ?' - इस प्रश्न का उत्तर यह है कि चाक्षुष तेज बाह्य तेज के उसी भाग से तादात्म्य स्थापित कर सकता है, जो कि विषय ग्रहण के नियामक अदृष्ट से प्रभावित होता है । तार्किक गण जो कहत
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