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षड्.. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५
अथ : अब नाम आदि निक्षेपों की नयो के साथ योजना की जाती है । द्रव्यास्तिक नय, चार निक्षेपों में से नाम स्थापना और द्रव्य निक्षेप इन तीनों को स्वीकार करता है । पर्यायास्तिक नय केवल भाव को स्वीकार करता हैं । प्रथम द्रव्यास्तिक के दो भेद हैं - संग्रह और व्यवहार । सामान्यग्राही नैगम का क्रम से संग्रहनय में और विशेषग्राही नैगम का व्यवहार नय में अन्तर्भाव होता है । ऋजुसूत्र आदि चार द्वितीय पर्यायास्तिक के भेद हैं, यह वस्तु पू. आचार्य सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी के मत के अनुसार है। पूज्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजीने विशेषावश्यक में कही है-विशेषावश्यक की गाथा इस प्रकार है - "द्रव्यार्थिक नय को नाम आदि तीन अभिमत हैं और पर्यायास्तिक को केवल भाव अभिमत है । संग्रह और व्यवहार द्रव्यार्थिक के भेद हैं और शेष पर्यायार्थिक के भेद हैं ।" ___ कहने का सार यह है कि, स्वयं स्थिर रहकर अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों में जो जाता है - वह द्रव्य है। 'द्रवति इति द्रव्यम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पर्यायों में अनुगत और स्थिर द्रव्य की प्रतीति होती है । इस द्रव्य को जो प्रधान रूप से स्वीकार करता है वह नय द्रव्यास्तिक । संग्रह और व्यवहार नय द्रव्यास्तिक के मत का आश्रय करते हैं। संग्रह सामान्य धर्म के द्वारा सब का संग्रह करता है । संग्रह नय के अनुसार सभी पदार्थ सत् स्वरूप हैं । सत् रूप से समस्त चेतन और अचेतन अर्थों की प्रतीति होती है । इन पदार्थों में परस्पर जो भेद है, वह अन्य की अपेक्षा से प्रतीत होता है, अत: वह मुख्य नहीं हैं । सत् स्वरूप की प्रतीति में अन्य की अपेक्षा नहीं हैं, अत: वह मुख्य हैं । सत् स्वरूप की अपेक्षा से सब एक हैं । अनुगामी स्वरूप द्रव्य का असाधारण तत्त्व है, अनुगामी सत्ता के कारण सब को संग्रह कर के सत् रूप से चेतन और अचेतन को एक कहनेवाला संग्रह सत्ता के रूप में द्रव्य का प्रतिपादक है, इसलिए वह द्रव्यास्तिक का भेद कहा जाता है । ___व्यवहार नय भेद का प्रतिपादन करता है । वह जिन भेदों का प्रतिपादन करता है, उनमें भी द्रव्य का स्वरूप स्थिर रहता है । पर्याय का आश्रय व्यवहार करता है । पर्याय द्रव्यो से सर्वथा भिन्न नहीं हैं । व्यवहार नय के अनुसार सत् रूप वस्तु के भेद हैं द्रव्य आदि । द्रव्य के भेद हैं जीव आदि । जीव अपने गुण और पर्यायों में अनुगत है । पुद्गल अपने गुण
और पर्यायों में अनुगामी रूप से विद्यमान है । चेतन अचेतन द्रव्यों को स्वीकार करने के कारण व्यवहार नय भी द्रव्यार्थिक का भेद है । संग्रह और व्यवहार दोनों द्रव्य का आश्रय लेते हैं । संग्रह सत् रूप द्रव्य का आश्रय लेकर भिन्न अर्थों में प्रधान रूप से अभेद का प्रतिपादन करता है । व्यवहार द्रव्यों के भेद का निरूपण करता है - यह दोनों का भेद है ।
नैगम भी एक नय है पर वह प.आ.श्री. सिद्धसेन दिवाकरसूरीजी के मत के अनुसार संग्रह और व्यवहार से भिन्न नहीं है । नैगम दो प्रकार का है - एक सामान्य का बोधक है और दूसरा विशेष का । जो सामान्य का प्रतिपादक नैगम है उसका संग्रह में और जो विशेष का प्रतिपादक है उसका व्यवहार में अन्तर्भाव हो जाता है । नैगम नय गौण
और गणी के भेद और अभेद का निरूपण करता है । गणों का आश्रय द्रव्य है, उसका प्रधान और अप्रधान भाव से निरूपण गुणों के बिना नहीं हो सकता, अत: वह भी द्रव्यार्थिक का भेद है ।
ऋजुसूत्र वर्तमान काल में रहनेवाली वस्तु का निरूपण करता है, अतीत और अनागत पर्यायों से अलग कर के निरूपण करने के कारण उसमें अनुगामी स्वरूप की प्रधानता नहीं है, अतः उसको पू.आ.श्री. सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी पर्याय नय का भेद स्वीकार करते हैं । इस मत को मानकर पूज्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण महाराजने विशेषावश्यक में ऋजुसूत्र को पर्यायास्तिक के भेद-रूप में कहा है । द्रव्य जिस प्रकार वर्तमान पर्याय के साथ रहता है इस प्रकार अतीत और अनागत पर्यायों के साथ भी रहता है । केवल वर्तमान पर्याय के साथ मुख्यरूप से संबंध होने के कारण ऋजुसूत्र का
मख्य भाव से गण
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