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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ कहने का आशय यह है कि, आगम में द्रव्य निक्षेप के दो प्रकार के भेद प्रतिपादित हैं । एक आगम से द्रव्य है और दूसरा नोआगम से द्रव्य है। पदार्थ के ज्ञान को आगम कहते हैं, पदार्थज्ञान का अभाव, नो-आगम कहा जाता है। जो घट शब्द का उच्चारण करता है परन्तु घट के विषय में उपयोग से अर्थात् घट विषयक अवधान से शून्य है, वह परुष आगम से द्रव्य घट है। नो आगम से द्रव्यघट तीन प्रकार का है - ज्ञाता का शरीर, भावी शरीर और इन दोनों से भिन्न मिट्टी रूप घट । घट का कारण होने से जिस प्रकार मिट्टी का पिंड द्रव्य घट है, इसी प्रकार घट के विषय से ज्ञान रहित पुरुष भी पीछे घट विषय का ज्ञाता हो जाता है, इसलिए उपयोग रहित पुरुष आगम से द्रव्य घट है । घट के ज्ञाता का शरीर शिला पर पड़ा हुआ पूर्वकाल में ज्ञानयुक्त आत्मा के साथ संबद्ध था, इसलिए इस काल में ज्ञाता का शरीर द्रव्य घट कहा जाता है । जिस शरीर के द्वारा अभी घट को नहीं जानता है किन्तु अन्य काल में इसी शरीर से जानेगा वह भावी शरीररूप द्रव्य घट है। द्रव्य निक्षेप के इन भेदों में अतीत और भावी शरीर को अथवा भावी कार्य के कारण को द्रव्य कहा गया है । अनुयोग द्वार सूत्र में ऋजुसूत्र के अनुसार आवश्यक के विषय में उपयोग रहित पुरुष को द्रव्य आवश्यक कहा है । अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार ऋजुसूत्र नय के मत में द्रव्य आवश्यक एक है, वह अनेक द्रव्य आवश्यकों को नहीं मानता । जो लोग ऋजुसूत्र के अनुसार द्रव्य निक्षेप को नहीं स्वीकार करते उनका अनुयोग द्वार के इस सूत्र के साथ विरोध है ।
कार्यरूप भाव को ऋजुसूत्र स्वीकार करता हैं, इस विषय में सब का मत एक है । कार्य घट में भी जो वर्तमान पर्याय है वह उत्तर क्षण के पर्यायों के उत्पन्न करने में कारण है । कारण होने से भाव घट भी द्रव्य घट है । ऋजुसूत्र वर्तमान काल के साथ संबद्ध भाव का प्रतिपादन मुख्यरूप से करता है, जो भाव घट वर्तमान है उसमें उत्तर क्षण के घट को उत्पन्न करने की योग्यता है । यह योग्यता कारणता रूप है और इस लिए द्रव्यरूप है । भाव का कार्य स्वरूप ही वर्तमान काल में नहीं है, किन्तु योग्यतारूप कारणता भी वर्तमान काल में है । इसलिए ऋजुसूत्र नय के अनुसार द्रव्य का निक्षेप उचित है। ऋजुसूत्र और द्रव्यनिक्षेप के परस्पर संबंध का प्रतिपादन करनेवालो का यह अभिप्राय है । अब ऋजुसूत्र नय को स्थापना निक्षेप भी मान्य है, यह बात को युक्तिपूर्वक बताते है -
कथं चाय पिण्डावस्थायां सुवर्णादिद्रव्यमनाकारं भविष्यत्कुण्डलादि - पर्यायलक्षणभावहेतुत्वेनाभ्युपगच्छन् विशिष्टेन्द्राधभिलापहेतुभूतां साकारामिन्द्रादिस्थापनां नेच्छेत् ?, न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति । ___ अर्थ : यह ऋजुसूत्र नय पिण्ड अवस्था में आकार से रहित सुवर्ण आदि द्रव्य को भावी कुण्डल आदि पर्यायरूप भाव का कारण होने से स्वीकार करता है, तो इन्द्र पद के उच्चारण में कारण और आकार से युक्त इन्द्र आदि की स्थापना क्यों नहीं मानेगा ? जो अनुभव से युक्त है, वह अयुक्त नहीं होता । ___ कहने का मतलब यह है कि, ऋजुसूत्र के मत में द्रव्य निक्षेप के सिद्ध हो जाने पर स्थापना का स्वीकार भी आवश्यक हो जाता है। पिण्ड अवस्था में सुवर्ण कुण्डल आदि पर्यायों के आकार से रहित होता है । कुण्डल पर्यायरूप भाव का कारण होने से सुवर्ण के पिण्ड को यदि ऋजुसूत्र द्रव्य कुण्डल आदि के रूप में मान सकता है, तो स्थापना के मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । सुवर्ण का पिण्ड देखकर उसके लिए कुण्डल आदि शब्द का प्रयोग नहीं होता । परन्तु इन्द्र की प्रतिमा को देखकर इन्द्र शब्द का प्रयोग होता है । सुवर्ण के पिंड में कुण्डल आदि का आकार नहीं है परन्तु प्रतिमा में इन्द्र का आकार है। भाव इन्द्र का जिस प्रकार वर्तमान काल के साथ सम्बन्ध है इस प्रकार स्थापना इन्द्र का भी अर्थात् इन्द्र की प्रतिमा का भी वर्तमान काल के साथ सम्बन्ध है । यह वस्तु प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है, अत: ऋजुसूत्र के मत में स्थापना का मानना युक्त है । अब इस विषय में अन्य युक्ति बताकर अधिक स्पष्टतायें करते हैं -
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