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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ द्रव्यमपि भावपरिणामिकारणत्वान्नामस्थापनाभ्यां भिद्यते, यथा ह्यनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यम्, उपयुक्तत्वकाले उपयोगलक्षणस्य भावस्य कारणं भवति, यथा वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रः सद्भावेन्द्ररूपायाः परिणते:, न तथा नामस्थापनेन्द्राविति । नामापि स्थापनाद्रव्याभ्यामुक्तवैधर्म्यादेव भिद्यते इति । ( जैनतर्क भाषा )
अर्थ : भाव का परिणामी कारण होने से द्रव्य, नाम और स्थापना से भिन्न है । जैसे उपयोग रहित वक्ता द्रव्य है, जब वह उपयोगवाला होता है तब उपयोग स्वरूप भाव का कारण होता है । अथवा जिस प्रकार भावेन्द्र रूप परिणाम का कारण होने से साधु का जीव द्रव्येन्द्र होता है । नाम- इन्द्र और स्थापना इन्द्र इस प्रकार भाव इन्द्र के परिणामी कारण नहीं बनते । जो विलक्षण धर्म पहले कहा है, उसके कारण ही स्थापना और द्रव्य से नाम भी भिन्न है ।
कहने का आशय यह कि, वर्तमान काल में जो पर्याय है, उनके साथ संबद्ध परिणामी कारण 'भाव' कहा जाता है । भाव रूप में परिणत होने से परिणामी कारण को कार्यभाव का द्रव्य कहा जाता है। मिट्टी का पिंड भाव घट के रूप में परिणत होता है, इसलिए उसको द्रव्य घट कहते हैं । नाम घट का अथवा स्थापना घट का परिणाम भाव घट के रूप में नहीं हो सकता, इस कारण द्रव्य, नाम और स्थापना से भिन्न है । इसी प्रकार साधुजीव का किसी काल में अर्थात् आगामी भव में भावेन्द्र के रूप में परिणाम हो सकता है, पर नाम- इन्द्र का और स्थापना - इन्द्र का भाव इन्द्र के रूप में परिणाम नहीं होता । इसी अभिप्राय के अनुसार वक्ता पुरुष को द्रव्य कहा जाता है । वक्ताका उपयोग किसी विषय में कभी होता है और कभी नहीं होता है। उपयोग आत्मा का धर्म है, जब किसी एक विषय में उपयोग नहीं रहता तब अपेक्षा से आत्मा को उपयोग रहित कहा जाता है । कुछ काल के अनन्तर आत्मा विशेष विषय के उपयोग रूप में परिणत हो जाता है । इस उपयोग का कारण होने से उपयोग रहित आत्मा द्रव्य कहा जाता है । स्थापना और द्रव्य के जो विलक्षण धर्म दिखाये हैं- वे नाम में नहीं है, इस कारण नाम का स्थापना और द्रव्य से भेद है । अब नामादि में किसी रुप से अभेद और किसी रुप से भेद को बताते हुए कहते है कि,
दुग्धतक्रादीनां श्वेतत्वादिनाऽभेदेऽपि माधुर्यादिना भेदवन्नामादीनां केनचिद्रूपेणाभेदेऽपि रूपान्तरेण भेद इति स्थितम् । (जैनतर्क भाषा )
अर्थ : दूध और तक्र आदि में श्वेत वर्ण आदि के द्वारा अभेद होने पर भी माधुर्य आदि के कारण जिस प्रकार भेद होता है, इस प्रकार नाम आदि में भी किसी रूप से अभेद है और अन्य रूप से भेद है यह सिद्ध हुआ ।
कहने का मतलब यह है कि, जो धर्म वस्तुओं को भिन्न करते हैं, उनकी उपेक्षा कर के समान धर्म के बल पर यदि वस्तुओं में अभेद माना जाय तो प्रमाणों से सिद्ध वस्तुओं का भेद भी नहीं रह सकेगा । गौ, घोडा, ईंट, पत्थर, नदी आदि अर्थ आंख से दिखाई देते हैं । दृश्यत्व इन सब का साधारण धर्म है, इसके द्वारा यदि इन सब को अभिन्न माना जाय तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के साथ विरोध होगा । चेतन और अचेतन का भेद अनुभव सिद्ध है, वह भी नहीं रह सकेगा । एक परिणामी द्रव्य के अनेक परिणाम होते हैं । उनमें द्रव्य की दृष्टि से अभेद होने पर भी पर्याय की अपेक्षा से भेद रहता है। दूध का परिणाम है, अतः द्रव्य की अपेक्षा से तक्र और दूध में भेद नहीं है, किन्तु पर्याय की अपेक्षा से इन दानों में । तक्र दूध नहीं है और दूध तक्र नहीं है । दूध का रस मधुर है और तक्र का रस आम्ल है । नाम आदि का भी, संबंध आदि की अपेक्षा से अभेद समझा जा सकता है, पर उनके जो स्वरूप भिन्न हैं उनके कारण उनमें भेद है ।
भेद है
शंका : ननु भाव एव वस्तु किं तदर्थशून्यैर्नामादिभिरिति चेत् । (जैनतर्क भाषा )
अर्थ : शंका-भाव केवल वस्तु हैं, भाव के अर्थ से शून्य नाम आदि के द्वारा क्या लाभ है ?
कहने का सार यह है कि, कारणभूत द्रव्य जब किसी पर्याय से युक्त होता है तब उसके द्वारा कार्य किया जा सकता
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