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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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निकलकर वेष का त्याग करके, महा शासन प्रभावना करने के बाद पुनः दीक्षा लेकर, गच्छ में आना वह यहाँ प्रायः अर्थात् विशेष से, चित्त की विशुद्धि करे, वह प्रायश्चित्त ऐसा शब्दार्थ जानना ।
• ७ प्रकार का विनय गुणवंत की भक्ति बहुमान करना अथवा आशातना न करनी उसे विनय कहा जाता हैं, वह ज्ञान दर्शन - चारित्र, मन वचन काया और उपचार ऐसे ७ प्रकार का है अथवा मन आदि ३ योग रहित ४ प्रकार का भी है।
वहाँ ७ प्रकार का विनय इस प्रकार से है - (१) ज्ञान विनय - ज्ञान तथा ज्ञानी की बाह्य सेवा करना वह भक्ति, अंतरंग प्रीति करना वह बहुमान, ज्ञान द्वारा देखे हुए पदार्थों के स्वरूप की भावना करना वह भावनाविषय, विधिपूर्वक ज्ञान ग्रहण करना वह विधिग्रहण और ज्ञान का अभ्यास करना वह अभ्यास विनय ऐसे पांच प्रकार से ज्ञानविनय हैं। (२) दर्शन विनय देव गुरु की उचित किया संभालनी वह शुश्रुषा विनय और आशातना न करना वह अनाशातना विनय ऐसे २ प्रकार का दर्शन विनय हैं। पुनः शुश्रुषा विनय १० प्रकार का हैं। वह इस प्रकार से है स्तवना वंदना करना वह सत्कार, आसन से खडे हो जाना वह अभ्युत्थान, वस्त्रादि देना वह सन्मान, बैठने के लिए आसन लाकर "बैठिए" कहना वह आसन परिग्रहण, आसन व्यवस्थित रखना वह आसन प्रदान, वंदना करना वह कृतिकर्म, दो हाथ जोडना वह अञ्जलिग्रहण, आये तब सामने जाना वह सन्मुखगमन, जाये तब छोडने जाना वह पश्चाद्गमन और बैठे हो तब वैयावच्च करना वह पर्युपासना, ये १० प्रकार से शुश्रूषा विनय जाने । तथा अनाशातना विनय के ४५ भेद हैं । वह इस प्रकार से है तीर्थंकर धर्म आचार्य उपाध्याय स्थविर कुल गण संघ सांभोगिक
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(एक मंडली में गोचरी वाले) तथा समनोज्ञ साधर्मिक ( समान सामाचारीवाले) ये १० तथा ५ ज्ञान ये १५ की आशातना का त्याग, उपरांत इन १५ का भक्ति- बहुमान और इन १५ की वर्णसंज्वलना (गुण प्रशंसा) इस प्रकार से ४५ भेद से दूसरा अनाशातना दर्शन विनय जानना। (३) चारित्र विनय पाँच चारित्र की सद्दहणा (श्रद्धा), (काया द्वारा) स्पर्शना आदर - पालन और प्ररूपणा, वह पाँच प्रकार का चारित्र विनय जानना । (४-५-६ ) योग विनय दर्शन तथा दर्शनी का मनवचन काया के द्वारा अशुभ न करना और शुभ में प्रवृत्ति करना, वह ३ प्रकार का योग विनय हैं। (यह ३ प्रकार का योग विनय - उपचार विनय में अन्तर्गत मानने से मूल विनय ४ प्रकार का होता है ।) (७) उपचार विनय - यह विनय ७ प्रकार का हैं । १. गुर्वादिके पास रहना, २. गुर्वादिक की इच्छा का अनुसरण करना, ३ . गुर्वादिक का आहार लाना इत्यादि से प्रत्युपकार करना, ४ . आहारादि देना ५. औषधादिक से परिचर्या करना, ६. अवसर के उचित आचरण करना ७. गुर्वादिक के कार्य में तत्पर रहना ।
१. ज्ञान, दीक्षापर्याय ओर वय स अधिक, २. व्याधिग्रस्त साधु, ३. नवदीक्षित शिष्य, ४. एक मंडली में गोचरी के व्यवहारवाले, ५. चन्द्रकुल, नागेन्द्रकुल इत्यादि ६. आचार्य का समुदाय और ७. सर्व साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका ।
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१० प्रकार से वैयावृत्य : (१) आचार्य (२) उपाध्याय, (३) तपस्वी, (४) स्थविर, (५) ग्लान, (६) शैक्ष, (७) साधर्मिक, (८) कुल (९) गण (१०) संघ - ये १० का यथायोग्य आहार वस्त्र, वसति, औषध, पात्र, आज्ञापालन इत्यादि से भक्ति - बहुमान करना वह १० प्रकार से वैयावृत्त्य कहा जाता है ।
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५ प्रकार से स्वाध्याय : पढना, पढाना वह वाचना, संदेह पूछना वह पृच्छना, पढा हुआ अर्थ याद करना ह परावर्तना, धारण किये हुए अर्थ के स्वरूप का विचार करना वह अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेश देना वह धर्मकथा ये पाँच
प्रकार का स्वाध्याय जानना ।
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